गुरुवार, 13 मई 2010

मीठा आम ........

एक सेठ के हाथ में एक गुलदस्ता था।

उसने उसे एक संत को दे दिया।

संत गुलदस्ता देखने लगे।

उसमें प्रत्येक फूल को देखकर वे प्रसन्न हुए

और उसकी सुगन्ध की प्रशंसा करने लगे।

सेठ सोचने लगा कि 'महाराज तो गुलदस्ते में ही मग्न हो गये,

देने वाले की ओर देखते तक नहीं।'

बड़ी देर हुई तो सेठ से रहा नहीं गया।

उसने कहाः "स्वामी जी !

जरा मेरी ओर भी देखिये। मुझे आपसे कुछ जानना है।"

सेठ की बात सुनकर संत ने गुलदस्ता रख दिया और बोलेः "सेठ जी !

यह तो मैं दृष्टांत दे रहा था।

सेठों का भी सेठ परमात्मा है और ये सांसारिक पदार्थ हैं

गुलदस्ते के फूल जो उसी ने हमें दिये हैं

किंतु हम इनमें इतने लीन हो गये कि उस दाता की याद ही नहीं आती।"


जैसे स्वप्न की सृष्टि एक काल्पनिक बगीचा है,

उसी प्रकार यह जाग्रत जगत भी मन की कल्पना ही है।

सपने की सृष्टि उस समय सत्य लगती है

परंतु जागने पर कुछ भी नहीं रहता,

वैसे ही आत्मा का ज्ञान होने पर जाग्रत जगत भी स्वप्नवत् हो जाता
है।

संसार में जो कुछ भी सौन्दर्य एवं आनंद दिखायी पड़ती है,

उसका कारण अज्ञान है। शरीर और संसार के पदार्थ नाशवान हैं।

एक आत्मा ही सत्, चित्त और आनंदस्वरूप है।


जब आप आम खाते हो तो आपको वह मीठा लगता है

और समझते हो कि उससे आनंद मिल रहा
है।

यह नासमझी है, अज्ञान है।

आनंद आम से नहीं मिल रहा

अपितु आम खाते समय उसके स्वाद में मन स्थिर हो गया,

चित्तवृत्तियाँ थोड़ी शांत अथवा कम हो गयीं तभी वहाँ से आनंद मिला

अर्थात् आनंद मिला मन के स्थिर होने से।

परंतु यह स्थिरता क्षणिक है।

थोड़ी देर बाद फिर से खटपट शुरू हो जायेगी

और आम खाने की तृष्णा भी बढ़ जायेगी,

मन आपको आम का गुलाम बना देगा।

किंतु जब आत्मरस मिलता है,

भगवद् भक्ति तथा भगवद् ज्ञान का अखूट आनंद मिलता है

तब मन उसमें स्थिर ही अपितु लीन भी हो जाता है।

जब मन थोड़ी देर के लिए आम में स्थिर हुआ तो इतना आनंद मिला,

यदि उस सच्चिदानंद में ही लीन हो जाय तो वह आनंद कैसा होगा !

उसका तो वाणी वर्णन ही नहीं कर सकती।

उसको हम पूरी तरह से शब्दों के द्वारा नहीं समझा सकते।

उसको तो अनुभव के द्वारा ही जान सकते हैं

और उसका अनुभव होता है साधना,

विवेक तथा
वैराग्य द्वारा।

hariom.....

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