गुरुवार, 28 जुलाई 2011

कोई है जो हर समय देख रहा है.........


पूज्य बापू कहते हैः  

चाहे कोई देखे या न देखे फिर भी कोई है जो हर समय देख रहा है,

 जिसके पास हमारे पाप-पुण्य सभी देख रहा है,

 जिसके पास हमारे पाप-पुण्य सभी कर्मों का लेखा-जोखा है।


 इस दुनिया की सरकार से शायद कोई बच भी जाय

 पर उस सरकार से आज तक न कोई बचा है और न बच पायेगा।

 किसी प्रकार की सिफारिश अथवा रिश्वत वहाँ काम नहीं आयेगी। उससे बचने का कोई मार्ग नहीं है।

 कर्म करने में तो मानव स्वतंत्र है किंतु फल में भोगने में कदापि नहीं,


 
  इसले हमेशा अशुभ कर्मों का त्याग करके शुभ कर्म करने चाहिए।

जो कर्म स्वयं को और दूसरा को भी सुख-शांति दें तथा देर-सवेर भगवान तक पहुँचा दें,

 वे शुभ कर्म हैं और जो क्षण भर के लिए ही (अस्थायी) सुख दे

 तथा भविष्य में अपने को व दूसरों को भगवान से दूर कर दें,


 नरकों में पहुँचा दें उन्हें अशुभ कर्म कहते हैं।

किये हुए शुभ या अशुभ कर्म कई जन्मों तक मनुष्य का पीछा नहीं छोडते। 

पूर्वजन्मों के कर्मों के जैसे संस्कार होते हैं, वैसा फल भोगना पड़ता है।

गहना कर्मणो गतिः।

'कर्मों की गति बड़ी गहन होती है।' (गीताः4.17)

कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है,

 चाहे कोई इसी जन्म में भोगे, चाहे दो जन्मों के बाद भोग, चाहे हजार जन्मों के बाद भोगे।

हजारों वर्षों तक नरकों में पड़ने के बजाय थोड़ा सा ही पवित्र जीवन बिताना कितना हितकारी है !

मनुष्य-जन्म एक चौराहे के समान है। यहाँ से सारे रास्ते निकलते हैं।

 आप सत्कर्म करके देवत्व लाओ और स्वर्ग के अधिकारी बनो

 अथवा तो ऐसा कर्म करो कि यक्ष, किन्नर, गंधर्व बन जाओ, 

आपके हाथ की बात है। 

जप, ध्यान, भजन, संतों का संग आदि करके ब्रह्म का ज्ञान पाकर मुक्त हो जाओ,

 यह भी आपके ही हाथ की बात है।

 फिर कोई कर्मबंधन आपको बाँध नहीं सकेगा।

(पूज्य बापूजी के सत्संग से निर्मित पुस्तक 'कर्म का अकाट्य सिद्धान्त' से)

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जय हो मेरे साइया ...तेरी जय हो...

कितना मस्त ज्ञान देते हो.....

और हम मुरख समजते ही नही है......
 ये सब हमारे लिए ही तो कर रहे हो....

इतनी सरल तरीके से आपका संजना.........

वाह बापू जी वाह......

आपकी जय हो....मेरे साईं...

hariommmmmmmmmmmmmmmmmmm

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हरिओम .....


बुधवार, 27 जुलाई 2011

आदमी-आदमी में अंतर, कोई हीरा कोई कंकर


किसी गाँव में एक चोर रहता था।
 एक बार उसे कई दिनों तक चोरी करने का अवसर ही नहीं मिला, 
जिससे उसके घर में खाने के लाले पड़ गये। 
अब मरता क्या न करता,


 वह रात्रि के लगभग बारह बजे गाँव के बाहर बनी एक साधु की कुटिया में घुस गया। 
वह जानता था कि साधु बड़े त्यागी हैं, अपने पास कुछ नहीं रखते फिर भी सोचा,
 'खाने पीने को ही कुछ मिल जायेगा। तो एक दो दिन का गुजारा चल जायेगा।'

जब चोर कुटिया में प्रवेश कर रहे थे,
 संयोगवश उसी समय साधु बाबा ध्यान से उठकर लघुशंका के निमित्त बाहर निकले।
 चोर से उनका सामना हो गया।

 साधु उसे देखकर पहचान गये क्योंकि पहले कई बार देखा था,
 पर साधु यह नहीं जानते थे कि वह चोर है।

 उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह आधी रात को यहाँ क्यों आया !
 साधु ने बड़े प्रेम से पूछाः "कहो बालक ! आधी रात को कैसे कष्ट किया ?

 कुछ काम है क्या ?"
चोर बोलाः "महाराज ! मैं दिन भर का भूखा हूँ।"

साधुः "ठीक है, आओ बैठो। 
मैंने शाम को धूनी में कुछ शकरकंद डाले थे, वे भुन गये होंगे, निकाल देता हूँ।
 तुम्हारा पेट भर जायेगा। 
शाम को आ गये होते तो जो था हम दोनों मिलकर खा लेते।

 पेट का क्या है बेटा ! 
अगर मन में संतोष हो तो जितना मिले उसमें ही मनुष्य खुश रह सकता है।
 'यथा लाभ संतोष' यही तो है।"


साधु ने दीपक जलाया। चोर को बैठने के लिए आसन दिया,
 पानी दिया और एक पत्ते पर भुने हुए शकरकंद रख दिये।
 फिर पास में बैठकर उसे इस तरह खिलाया, जैसे कोई माँ अपने बच्चे को खिलाती है।

 साधु बाबा के सदव्यवहार से चोर निहाल हो गया, सोचने लगा,
 'एक मैं हूँ और एक ये बाबा हैं। मैं चोरी करने आया और ये इतने प्यार से खिला रहे हैं 

! मनुष्य ये भी हैं और मैं भी हूँ। 

यह भी सच कहा हैः "" आदमी-आदमी में अंतर, कोई हीरा कोई कंकर""।

 मैं तो इनके सामने कंकर से भी बदतर हूँ।'


मनुष्य में बुरी के साथ भली वृत्तियाँ भी रहती हैं, जो समय पाकर जाग उठती हैं।
 जैसे उचित खाद-पानी पाकर बीज पनप जाता है, 

वैसे ही संत का संग पाकर मनुष्य की सदवृत्तियाँ लहलहा उठती हैं।
 चोर के मन के सारे कुसंस्कार हवा हो गये।
 उसे संत के दर्शन, सान्निध्य और अमृतवर्षा दृष्टि का लाभ मिला।

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।

उन ब्रह्मनिष्ठ साधुपुरुष के आधे घंटे के समागम से चोर के कितने ही मलिन संस्कार नष्ट हो गये।

 साधु के सामने अपना अपराध कबूल करने को उसका मन उतावला हो उठा।
 फिर उसे लगा कि 'साधु बाबा को पता चलेगा कि मैं चोरी की नियत से आया था
 तो उनकी नजर में मेरी क्या इज्जत रह जायेगी !

 क्या सोचेंगे बाबा कि कैसा पतित प्राणी है, जो मुझ संत के यहाँ चोरी करने आया !'

 लेकिन फिर सोचा, 'साधु मन में चाहे जो समझें,
 मैं तो इनके सामने अपना अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित करूँगा।
 इतने दयालू महापुरुष हैं, ये मेरा अपराध अवश्य क्षमा कर देंगे।'

 संत के सामने प्रायश्चित करने से सारे पाप जलकर राख हो जाते हैं।

उसका भोजन पूरा होने के बाद साधु ने कहाः "बेटा ! अब इतनी रात में तुम कहाँ जाओगे,                   मेरे पास एक चटाई है,
 इसे ले लो और आराम से यहाँ सो जाओ। सुबह चले जाना।"


नेकी की मार से चोर दबा जा रहा था।
 वह साधु के पैरों पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा। 
साधु समझ न सके कि यह क्या हुआ ! 

साधु ने उसे प्रेमपूर्वक उठाया, प्रेम से सिर पर हाथ फेरते हुए पूछाः "बेटा ! क्या हुआ ?"

रोते-रोते चोर का गला रूँध गया। 
उसने बड़ी कठिनाई से अपने को सँभालकर कहाः "महाराज ! मैं बड़ा अपराधी हूँ।"

साधु बोलेः "बेटा ! भगवान तो सबके अपराध क्षमा करने वाले हैं।
 उनकी शरण में जाने से वे बड़े-से-बड़े अपराध क्षमा कर देते हैं।
 तू उन्हीं की शरण में जा।"

चोरः "महाराज ! मेरे जैसे पापी का उद्धार नहीं हो सकता।"

साधुः "अरे पगले !
 भगवान ने कहा हैः यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है।"


"नहीं महाराज ! मैंने बड़ी चोरियाँ की हैं।
 आज भी मैं भूख से व्याकुल होकर आपके यहाँ चोरी करने आया था
 लेकिन आपके सदव्यवहार ने तो मेरा जीवन ही पलट दिया। 

आज मैं आपके सामने कसम खाता हूँ कि आगे कभी चोरी नहीं करूँगा,
 किसी जीव को नहीं सताऊँगा। 
आप मुझे अपनी शरण में लेकर अपना शिष्य बना लीजिये।"


साधु के प्यार के जादू ने चोर को साधु बना दिया।
 उसने अपना पूरा जीवन उन साधु के चरणों में सदा के समर्पित करके अमूल्य मानव जीवन को अमूल्य-से-अमूल्य परमात्मा को पाने के रास्ते लगा दिया।

महापुरुषों की सीख है कि "आप सबसे आत्मवत् व्यवहार करें
 क्योंकि सुखी जीवन के लिए विशुद्ध निःस्वार्थ प्रेम ही असली खुराक है।
 संसार इसी की भूख से मर रहा है, अतः प्रेम का वितरण करो। 

अपने हृदय के आत्मिक प्रेम को हृदय में ही मत छिपा रखो।
 उदारता के साथ उसे बाँटो, जगत का बहुत-सा दुःख दूर हो जायेगा।"

waah bapu ji waah.............gajab ka samjate ho............

jai ho mere saiya teri jai ho...........

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hariom

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

मैं विवाह नहीं करूँगा,.........



तैलंग स्वामी बड़े उच्चकोटि के संत थे।

 वे 280 साल तक धरती पर रहे। रामकृष्ण परमहंस के उनके काशी में दर्शन किये तो बोलेः ''साक्षात् विश्वनाथजी इनके शरीर में निवास करते हैं।"

 उन्होंने तैलंग स्वामी को 'काशी के सचल विश्वनाथ' नाम से प्रचारित किया।

तैलंग स्वामी जी का जन्म दक्षिण भारत के विजना जिले के होलिया ग्राम में हुआ था। 

बचपन में उनका नाम शिवराम था।
 शिवराम का मन अन्य बच्चों की तरह खेलकूद में नहीं लगता था।

 जब अन्य बच्चे खेल रहे होते तो वे मंदिर के प्रांगण में अकेले चुपचाप बैठकर एकटक आकाश की ओर या शिवलिंग को निहारते रहते।

 कभी किसी वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे ही समाधिस्थ हो जाते।

 लड़के का रंग-ढंद देखकर माता-पिता को चिंता हुई कि कहीं यह साधु बन गया तो !

 उन्होंने उनका विवाह कराने का मन बना लिया।

 शिवराम को जब इस बात का पता चला तो वे माँ से बोलेः "माँ ! मैं विवाह नहीं करूँगा,

 मैं तो साधु बनूँगा। अपने आत्मा की, परमेश्वर की सत्ता का ज्ञान पाऊँगा,

 सामर्थ्य पाऊँगा।" माता-पिता के अति आग्रह करने पर वे बोलेः 

"अगर आप लोग मुझे तंग करोगे तो फिर कभी मेरा मुँह नहीं देख सकोगे।"


माँ ने कहाः "बेटा ! मैंने बहुत परिश्रम करके, कितने-कितने संतों की सेवा करके तुझे पाया है। मेरे लाल !

 जब तक मैं जिंदा रहूँ तब तक तो मेरे साथ रहो, मैं मर जाऊँ फिर तुम साधु हो जाना।

 पर इस बात का पता जरूर लगाना कि संत के दर्शन और उनकी सेवा का क्या फल होता है।


"माँ ! मैं वचन देता हूँ।"

कुछ समय बाद माँ तो चली गयी भगवान के धाम और वे बन गये साधु।

 काशी में जाकर बड़े-बड़े विद्वानों, संतों से सम्पर्क किया।

 कई ब्राह्मणों, साधु-संतों से प्रश्न पूछा लेकिन किसी ने ठोस उत्तर नहीं दिया
 कि संत-सान्निध्य और संत-सेवा का यह-यह फल होता है।

 यह तो जरूर बताया कि
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।


परंतु यह पता नहीं चला कि पूरा फल क्या होता है। इन्होंने सोचा, 'अब क्या करें ?'

किसी साधु ने कहाः "बंगाल में बर्दवान जिले की कटवा नगरी में गंगाजी के तट पर उद्दारणपुर नाम का एक महाश्मशान है, 

वहीं रघुनाथ भट्टाचार्य स्मृति ग्रंथ लिख रहे हैं।

 उनकी स्मृति बहुत तेज है। वे तुम्हारे प्रश्न का जवाब दे सकते हैं।"

अब कहाँ तो काशी और कहाँ बंगाल, फिर भी उधर गये।

 रघुनाथ भट्टाचार्य ने कहाः "भाई ! संत के दर्शन और उनकी सेवा का क्या फल होता है,

 यह मैं नहीं बता सकता। हाँ, उसे जानने का उपाय बताता हूँ।

 तुम नर्मदा किनारे चले जाओ और सात दिन तक मार्कण्डेय चण्डी का सम्पुट करो।

 सम्पुट खत्म होने से पहले तुम्हारे समक्ष एक महापुरुष और भैरवी उपस्थित होंगे।

 वे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे सकते है "

शिवरामजी ने वहाँ से नर्मदा-किनारे पहुँचे और अनुष्ठान में लग गये।

 देखो, भूख होती है तो आदमी परिश्रम करता है

 और परिश्रम के बाद जो मिलता है न, वह पचता है।

 अब आप लोगों को ब्रह्मज्ञान की तो भूख है नहीं,

 ईश्वरप्राप्ति के पुरुषार्थ करना नहीं है तो कितना सत्संग मिलता है,

 उससे पुण्य तो हो रहा है, फायदा तो हो रहा है लेकिन साक्षात्कार की ऊँचाई नहीं आती। 

हमको भूख थी तो मिल गया गुरुजी का प्रसाद।

अनुष्ठान का पाँचवाँ दिन हुआ तो भैरवी के साथ एक महापुरुष प्रकट हुए।

 बोलेः "क्या चाहते हो ?" शिवरामजी प्रणाम करके बोलेः "प्रभु ! मैं यह जानना चाहता हूँ कि संत के दर्शन, सान्निध्य और सेवा का क्या फल होता है ?"

महापुरुष बोलेः "भाई ! यह तो मैं नहीं बता सकता हूँ।"

देखो, यह हिन्दू धर्म की कितनी सच्चाई है !

 हिन्दू धर्म में निष्ठा रखने वाला कोई भी गप्प नहीं मारता कि ऐसा है, ऐसा है।

 काशी में अनेक विद्वान थे, कोई गप्प मार देता ! लेकिन नहीं, सनातन धर्म में सत्य की महिमा है।

 आता है तो बोलो, नहीं आता तो नहीं बोलो।

 शिवस्वरूप महापुरुष बोलेः "भैरवी ! तुम्हारे झोले में जो तीन गोलियाँ पड़ी हैं वे इनको दे दो।"
फिर वे शिवरामजी को बोलेः "इस नगर के राजा के यहाँ संतान नहीं है।

 वह इलाज कर-करके थक गया है।

 ये तीन गोलियाँ उस राजा की रानी को खिलाने से उसको एक बेटा होगा,

 भले उसके प्रारब्ध में नहीं है। वही नवजात शिशु तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देगा।"

शिवरामजी वे तीन गोलियाँ लेकर चले। 

नर्मदा किनारे जंगल में आँधी –तूफानों के बीच पेड़ के नीचे सात दिन के उपवास,

 अनुष्ठान  शिवरामजी का शरीर कमजोर पड़ गया था।

 रास्ते में किसी बनिया की दुकान से कुछ भोजन किया

 और एक पेड़ के नीचे आराम करने लगे। इतने में एक घसियारा आया।

 उसने घास का बंडल एक ओर रखा।

 शिवरामजी को प्रणाम किया,

 बोलाः "आज की रात्रि यहीं विश्राम करके मैं कल सुबह बाजार में जाऊँगा।"

शिवरामजी बोलेः "हाँ, ठीक है बेटा ! अभी तू जरा पैर दबा दे।"

वह पैर दबाने लगा। शिवरामजी को नींद आ गयी और वे सो गये।

 घसियारा आधी रात तक उनके पैर दबाता रहा और फिर सो गया।

 सुबह हुई, शिवरामजी ने उसे पुकारा तो देखा कि वह तो मर गया है।

 अब उससे सेवा ली है तो उसका अंतिम संस्कार तो करना पड़ेगा।

 दुकान से लकड़ी आदि लाकर नर्मदा के पावन तट पर उसका क्रियाकर्म कर दिया 

और नगर में जा पहुँचे।


राजा को संदेशा भेजा कि 'मेरे पास दैवी औषधी है,

 जिसे खिलाने से रानी को पुत्र होगा।

राजा ने इन्कार कर दिया कि "मैं रानी को पहले ही बहुत सारी औषधियाँ खिलाकर देख चुका हूँ परंतु कोई सफलता नहीं मिली।"

शिवरामजी ने मंत्री से कहाः "राजा को बोलो जब तक संतान नहीं होगी,

 तब तक मैं तुम्हारे राजमहल के पास रहूँगा।" तब राजा ने शिवरामजी की औषधि ले ली।


शिवरामजी ने कहाः "मेरी एक शर्त है कि पुत्र जन्म लेते ही तुरंत नहला-धुलाकर मेरे सामने लाया जाये। 

मुझे उससे बातचीत करनी है, इसीलिए तो मैं इतनी मेहनत करके आया हूँ।"


यह बात मंत्री ने राजा को बतायी तो राजा आश्चर्य से बोलाः 

"नवजात बालक बातचीत करेगा ! चलो देखते हैं।"

रानी को गोलियाँ खिला दीं। दस महीने बाद बालक का जन्म हुआ।

 जन्म के बाद बालक को स्नान आदि कराया तो वह बच्चा आसन लगाकर ज्ञान मुद्रा में बैठ गया। राजा की खुशी का ठिकाना न रहा।

 रानी गदगद हो उठी कि "यह कैसा बबलू है कि पैदा होते ही ॐऽऽऽ करने लगा !

 ऐसा तो कभी देखा-सुना नहीं।"

सभी लोग चकित हो गये। शिवरामजी के पास खबरें पहुँची।

 वे आये, उन्हें भी महसूस हुआ कि 'हाँ, अनुष्ठान का चमत्कार तो है !

' वे बालक को देखकर प्रसन्न हुए, बोले, 

"बालक ! मैं तुमसे एक सवाल पूछने आया हूँ

 कि संत-सान्निध्य और संत सेवा का क्या फल होता है 

?"
नवजात शिशु बोलाः "महाराज ! मैं तो एक गरीब, लाचार, मोहताज घसियारा था।

 आपकी थोड़ी सी सेवा की और उसका फल देखिये,

 मैंने अभी राजपुत्र होकर जन्म लिया है और पिछले जन्म की बातें सुना रहा हूँ।

 इसके आगे और क्या-क्या फल होगा, इतना तो मैं नहीं जानता हूँ।।"


ब्रह्म का ज्ञान पाने वाले, ब्रह्म की निष्ठा में रहने वाले महापुरुष बहुत ऊँचे होते हैं

 परंतु उनसे भी कोई विलक्षण होते हैं कि जो ब्रह्मरस पाया है वह फिर छलकाते भी रहते हैं।

 ऐसे महापुरुषों के दर्शन, सान्निध्य व सेवा की महिमा तो वह घसियारे से राजपुत्र बना नवजात बबलू बोलने लग गया,

 फिर भी उनकी महिमा का पूरा वर्णन नहीं कर पाया तो मैं कैसे कर सकता हूँ !


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
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