शनिवार, 20 अगस्त 2011

यही है आसाराम की आशा ................

ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आसारामजी बापू का पावन जीवन तो ऐसी अनेक घटनाओं से परिपूर्ण है,


जिनमें उनकी करूणा-उदारता एवं परदुःखकातरता सहज में ही परिलक्षित होती है।




आज से 30 वर्ष पहले की बात हैः

एक बार पूज्य श्री डीसा में बनास नदी के किनारे संध्या के समय ध्यान-भजन के लिए बैठे हुए थे।


नदी में घुटने तक पानी बह रहा था।






उसी समय जख्मी पैरवाला एक व्यक्ति नदी किनारे चिंतित-सा दिखायी दिया।


वह नदी पार अपने गाँव जाना चाहता था। घुटने भर पानी वाली नदी,


पैर में भारी जख्म, नदी पार कैसे करे ! इसी चिंता में डूबा सा दिखा।


पूज्य श्री उसकी चिंता का कारण समझ गये और उसे अपने कंधे पर बैठाकर नदी पार करा दी।


घाव से पीड़ित पैरवाला वह गरीब मजदूर दंग रह गया।


साँईं की सहज करूणा-कृपा व दयाभरे व्यवहार से प्रभावित होकर डामर रोड बनाने वाले उस मजदूर ने


अपना दुखड़ा सुनाते हुए पूज्य बापू जी से कहाः



"पैर पर जख्म होने से ठेकेदार ने काम पर आने से मना कर दिया है।


कल से मजदूरी नहीं मिलेगी।"



पूज्य बापू जी ने कहाः "मजदूरी न करना, मुकादमी करना। जा मुकादमी हो जा।"



दूसरे दिन ठेकेदार के पास जाते ही उस मजदूर को उसने ज्यादा तनख्वाहवाली,


हाजिरी भरने की आरामदायक मुकादमी की नौकरी दी।


किसकी प्रेरणा से दी,


किसके संकल्प से दी यह मजदूर से छिपा न रह सका।


कंधे पर बैठाकर नदी पार कराने वाले ने रोजी-रोटी की चिंता से भी पार कर दिया


तो मालगढ़ का वह मजदूर प्रभु का भक्त बन गया


और गदगद कंठ से डीसावासियों को अपना अनुभव सुनाने लगा।




ऐसे अनगणित प्रसंग हैं जब बापू जी ने निरोह,


निःसहाय, जीवों को अथवा सभी ओर से हारे हुए,


दुःखी, पीड़ित व्यक्तियों को कष्टों से उबारकर उनमें आनन्द, उत्साह भरा हो।


तुम्हारे रुपये पैसे, फूल-फल की मुझे आवश्यकता नहीं,


लेकिन तुम्हारा और तुम्हारे द्वारा किसी का कल्याण होता है तो बस,


मुझे दक्षिणा मिल जाती है, मेरा स्वागत हो जाता है।


मैं रोने वालों का रूदन भक्ति में बदलने के लिए,


निराशों के जीवन में आशा के दीप जगाने के लिए,


लीलाशाहजी की लीला का प्रसाद बाँटने के लिए आया हूँ


और बाँटते-बाँटते कइयों को भगवदरस में छका हुआ देखने को आया हूँ।


प्रभु प्रेम के गीत गुँजाकर आप भी तृप्त रहेंगे,


औरों को भी तृप्ति के आचमन दिया करेंगे,


ऐसा आज से आप व्रत ले लें,


यही आसाराम की आशा है। ॐ गुरु...... ॐ गुरु..... ॐ गुरु.....ॐ....



चिंतन करो कि 'ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं अपने राम-स्वभाव में जगूँगा,




सुख-दुःख में सम रहूँगा...?


मेरे ऐसे दिन कब आयेंगे कि मुझे संसार स्वप्न जैसा लगेगा...?


ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं अपनी देह में रहते हुए भी विदेही आत्मा में जगूँगा....?


ऐसा चिंतन करने से निम्न इच्छाएँ शांत होती जायेंगी और बाद में उन्नत इच्छाएँ भी शांत हो जायेंगी।


फिर तुम इच्छाओं के दास नहीं, आशाओं के दास नहीं, आशाओं के राम हो जाओगे।








प्राणिमात्र की आशा के राम
श्रीरामचरित मानस में आता हैः
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवड़ नवनीता। पर दुःख द्रवहिं संत सुपुनीता।।

'संतों का हृदय मक्खन के समान होता है,

 ऐसा कवियों ने कहा है।

 परंतु उन्होंने असली बात कहना नहीं जाना 

क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है

 जबकि परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं।" (उत्तर कां. 124.4)

संतों का हृदय बड़ा दयालु होता है।

 जाने अनजाने कोई भी जीव उनके सम्पर्क में आ जाता है 

तो उसका कल्याण हुए बिना नहीं रहता।

 एक उपनिषद में उल्लेख आता हैः
यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।
स्थावरणापि मुच्यन्ते किं पुनः प्राकृताः जनाः।।



'ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से स्वयं के हाथों द्वारा जिनको स्पर्श करते हैं, 

आँखों द्वारा जिनको देखते हैं वे जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं

 तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए व्यक्तियों के देर-सवेर होने वाले मोक्ष के बारे में शंका ही कैसी !'