सोमवार, 1 नवंबर 2010

मोतियों से अश्क बह जाते है जिसके लिए ..

मोतियों से अश्क बह जाते है जिसके लिए .....
कोशिश है गिरने न दू इन्हें मगर .......
बिनबुलाये  बेवजह नामुराद ये आंसू ...
अनथक जाने कहा से चले ही आते है ....

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

रमा एकादशी is 2 nd nov. 2010

रमा एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! मुझ पर आपका स्नेह है,
अत: कृपा करके बताइये कि कार्तिक के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ?

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! कार्तिक (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार आश्विन) के कृष्णपक्ष में
‘रमा’नाम की विख्यात और परम कल्याणमयी एकादशी होती है ।

यह परम उत्तम है और बड़े-बड़े पापों को हरनेवाली है ।
पूर्वकाल में मुचुकुन्द नाम से विख्यात एक राजा हो चुके हैं,
जो भगवान श्रीविष्णु के भक्त और सत्यप्रतिज्ञ थे ।

अपने राज्य पर निष्कण्टक शासन करनेवाले उन राजा के यहाँ नदियों में श्रेष्ठ
‘चन्द्रभागा’ कन्या के रुप में उत्पन्न हुई ।
राजा ने चन्द्रसेनकुमार शोभन के साथ उसका विवाह कर दिया ।

एक बार शोभन दशमी के दिन अपने ससुर के घर आये और उसी दिन समूचे नगर में पूर्ववत् ढिंढ़ोरा पिटवाया गया कि: ‘एकादशी के दिन कोई भी भोजन न करे ।’

इसे सुनकर शोभन ने अपनी प्यारी पत्नी चन्द्रभागा से कहा :
प्रिये ! अब मुझे इस समय क्या करना चाहिए,इसकी शिक्षा दो ।’


चन्द्रभागा बोली :प्रभो!मेरे पिता के घर पर एकादशी के दिन मनुष्य तो क्या कोई पालतू पशु आदि भी भोजन नहीं कर सकते । प्राणनाथ ! यदि आप भोजन करेंगे तो आपकी बड़ी निन्दा होगी । इस प्रकार मन में विचार करके अपने चित्त को दृढ़ कीजिये ।


शोभन ने कहा :प्रिये ! तुम्हारा कहना सत्य है ।
मैं भी उपवास करुँगा । दैव का जैसा विधान है, वैसा ही होगा ।


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके शोभन ने व्रत के नियम का पालन किया किन्तु सूर्योदय होते होते उनका प्राणान्त हो गया ।

राजा मुचुकुन्द ने शोभन का राजोचित दाह संस्कार कराया ।
चन्द्रभागा भी पति का पारलौकिक कर्म करके पिता के ही घर पर रहने लगी ।

नृपश्रेष्ठ ! उधर शोभन इस व्रत के प्रभाव से मन्दराचल के शिखर पर बसे हुए परम रमणीय देवपुर को

प्राप्त हुए । वहाँ शोभन द्वितीय कुबेर की भाँति शोभा पाने लगे ।

एक बार राजा मुचुकुन्द के नगरवासी विख्यात ब्राह्मण सोमशर्मा तीर्थयात्रा के प्रसंग से घूमते हुए
मन्दराचल पर्वत पर गये, जहाँ उन्हें शोभन दिखायी दिये ।

राजा के दामाद को पहचानकर वे उनके समीप गये ।
शोभन भी उस समय द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा को आया हुआ देखकर शीघ्र ही आसन से उठ खड़े हुए
और उन्हें प्रणाम किया ।

फिर क्रमश : अपने ससुर राजा मुचुकुन्द, प्रिय पत्नी चन्द्रभागा तथा समस्त नगर का कुशलक्षेम पूछा ।



सोमशर्मा ने कहा : राजन् ! वहाँ सब कुशल हैं । आश्चर्य है ! ऐसा सुन्दर और विचित्र नगर तो कहीं किसीने भी नहीं देखा होगा । बताओ तो सही, आपको इस नगर की प्राप्ति कैसे हुई?



शोभन बोले : द्विजेन्द्र ! कार्तिक के कृष्णपक्ष में जो ‘रमा’ नाम की एकादशी होती है,
उसीका व्रत करने से मुझे ऐसे नगर की प्राप्ति हुई है । ब्रह्मन् !

मैंने श्रद्धाहीन होकर इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया था, इसलिए मैं ऐसा मानता हूँ कि यह नगर स्थायी नहीं है । आप मुचुकुन्द की सुन्दरी कन्या चन्द्रभागा से यह सारा वृत्तान्त कहियेगा ।



शोभन की बात सुनकर ब्राह्मण मुचुकुन्दपुर में गये और वहाँ चन्द्रभागा के सामने उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया ।



सोमशर्मा बोले : शुभे ! मैंने तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा । इन्द्रपुरी के समान उनके दुर्द्धर्ष नगर का भी अवलोकन किया, किन्तु वह नगर अस्थिर है । तुम उसको स्थिर बनाओ ।



चन्द्रभागा ने कहा : ब्रह्मर्षे ! मेरे मन में पति के दर्शन की लालसा लगी हुई है । आप मुझे वहाँ ले चलिये । मैं अपने व्रत के पुण्य से उस नगर को स्थिर बनाऊँगी ।



भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! चन्द्रभागा की बात सुनकर सोमशर्मा उसे साथ ले मन्दराचल पर्वत के निकट वामदेव मुनि के आश्रम पर गये ।

वहाँ ॠषि के मंत्र की शक्ति तथा एकादशी सेवन के प्रभाव से चन्द्रभागा का शरीर दिव्य हो गया तथा उसने दिव्य गति प्राप्त कर ली । इसके बाद वह पति के समीप गयी ।

अपनी प्रिय पत्नी को आया हुआ देखकर शोभन को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने उसे बुलाकर अपने वाम भाग में सिंहासन पर बैठाया । तदनन्तर चन्द्रभागा ने अपने प्रियतम से यह प्रिय वचन कहा:

‘नाथ ! मैं हित की बात कहती हूँ, सुनिये ।
जब मैं आठ वर्ष से अधिक उम्र की हो गयी,

तबसे लेकर आज तक मेरे द्वारा किये हुए एकादशी व्रत से जो पुण्य संचित हुआ है, उसके प्रभाव से यह नगर कल्प के अन्त तक स्थिर रहेगा तथा सब प्रकार के मनोवांछित वैभव से समृद्धिशाली रहेगा ।’



नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार ‘रमा’ व्रत के प्रभाव से चन्द्रभागा दिव्य भोग, दिव्य रुप और दिव्य आभरणों से विभूषित हो अपने पति के साथ मन्दराचल के शिखर पर विहार करती है ।

राजन् ! मैंने तुम्हारे समक्ष ‘रमा’ नामक एकादशी का वर्णन किया है ।

यह चिन्तामणि तथा कामधेनु के समान सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली है ।

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

I LOVE U BAPU

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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

माया.......

असली पारस

(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

संत नामदेव की पत्नी का नाम राजाई था और परीसा भागवत की पत्नी का नाम था कमला।

कमला और राजाई शादी के पहले सहेलियाँ थीं। दोनों की शादी हुई तो पड़ोस-पड़ोस में ही आ गयीं।

राजाई नामदेव जी जैसे महापुरुष की पत्नी थी और कमला परीसा भागवत जैसे देवी के उपासक की पत्नी

थी। कमला के पति ने देवी की उपासना करके देवी से पारस माँग लिया

और वे बड़े धन-धान्य से सम्पन्न होकर रहने लगे। नामदेवजी दर्जी का काम करते थे।

वे कीर्तन-भजन करने जाते और पाँच-पन्द्रह दिन के बाद लौटते।

अपना दर्जी का काम करके आटे-दाल के पैसे इकट्ठे करते और फिर चले जाते।

वे अत्यन्त दरिद्रता में जीते थे लेकिन अंदर से बड़े सन्तुष्ट और खुश रहते थे।

एक दिन नामदेव जी कहीं कीर्तन-भजन के लिए गये तो कमला ने राजाई से कहा कि

'तुम्हारी गरीबी देखकर मुझे तरस आता है। मेरा पति बाहर गया,

तुम यह पारस ले लो, थोड़ा सोना बना लो और अपने घर को धन धान्य से सम्पन्न कर लो।'

राजाई ने पारस लिया और थोड़ा सा सोना बना लिया। संतुष्ट व्यक्ति की माँग भी आवश्यकता की

पूर्ति भर होती है। ऐसा नहीं कि दस टन सोना बना ले, एक दो पाव बनाया बस।

नामदेव जी ने आकर देखा तो घर में सीधा-सामान, धन-धान्य....

भरा-भरा घर दीखा। शक्कर, गुड़, घी आदि जो भी घर की आवश्यकता थी वह सारा सामान आ गया था।



नामदेव जी ने कहाः "इतना सारा वैभव कहाँ से आया ?"

राजाई ने सारी बात बता दी कि "परीसा भागवत ने देवी की उपासना की और देवी ने पारस दिया।

वे लोग खूब सोना बनाते हैं और इसीलिए दान भी करते हैं, मजे से रहते हैं।

हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। मेरा दुःख देखकर उसको दया आ गयी।"

नामदेव जी ने कहाः "मुझे तुझ पर दया आती है कि सारे पारसों को पारस ईश्वर है,

उसको छोड़कर तू एक पत्थर लेकर पगली हो रही है। चल मेरे साथ, उठा ये सामान !"

नामदेव जी बाहर गरीबों में सब सामान बाँटकर आ गये। घर जैसे पहले था ऐसे ही खाली-खट कर दिया।

नामदेव जी ने पूछाः "वह पत्थर कहाँ है ? लाओ !

" राजाई पारस ले आयी। नामदेव जी ने उसे ले जाकर नदी में फेंक दिया और कहने लगे

'मेरे विट्ठल, पांडुरंग ! हमें अपनी माया से बचा। इस धन दौलत, सुख सुविधा से बचा,

नहीं हम तेरा, अंतरात्मा का सुख भूल जायेंगे।' – ऐसा कहते कहते वे ध्यान मग्न हो गये।

स्त्रियों के पेट में ऐसी बड़ी बात ज्यादा देर नहीं ठहरती।

राजाई ने अपनी सहेली से कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया।

अब सहेली कमला तो रोने लगी। इतने में परीसा भागवत आया,

पूछाः "कमला ! क्या हुआ, क्या हुआ ?"

वह बोलीः "तुम मुझे मार डालोगे ऐसी बात है।"

आखिर परीसा भागवत ने सारा रहस्य समझा तो वह क्रोध से लाल-पीला हो गया।

बोलाः "कहाँ है नामदेव, कहाँ है ? कहाँ गया मेरा पारस, कहाँ गया ?

" और इधर नामदेव तो नदी के किनारे ध्यानमग्न थे।

परीसा भागवत वहाँ पहुँचाः "ओ ! ओ भगत जी ! मेरा पारस दीजिये।"

नामदेवः "पारस तो मैंने डाल दिया उधर (नदी में)।

परम पारस तो है अपना आत्मा। यह पारस पत्थर क्या करता है ?

मोह, माया, भूत-पिशाच की योनि में भटकाता है।

पारस-पारस क्या करते हो भाई !

बैठो और पांडुरंग का दर्शन करो।"

"मुझे कोई दर्शन-वर्शन नहीं करना।"

"हरि ॐ बोलो, आत्मविश्रान्ति पाओ।"

"नहीं चाहिए आत्मविश्रान्ति, आप ही पाओ।

मेरे जीवन में दरिद्रता है, ऐसा है वैसा है... मुझे मेरा पारस दीजिये।"

"पारस तो नदी में डाल दिया।"

"नदी में डाल दिया ! नहीं, मुझे मेरा वह पारस दीजिये।"

"अब क्या करना है..... सच्चा पारस तो तुम्हारा आत्मा ही है। अरे, सत्य आत्मा है...."

"मैं आपको हाथ जोड़ता हूँ मेरे बाप ! मुझे मेरा पारस दो.... पारस दो.....।"

"पारस मेरे पास नही है, वह तो मैंने नदी में डाल दिया।"

"कितने वर्ष साधना की, मंत्र-अनुष्ठान किये,

सिद्धि आयी, अंत में सिद्धिस्वरूपा देवी ने मुझे वह पारस दिया है।


देवी का दिया हुआ वह मेरा पारस...."

नामदेव जी तो संत थे, उनको तो वह मार नहीं सकता था। अपने-आपको ही कूटने लगा।

नामदेव जी बोलेः "अरे क्या पत्थर के टुकड़े के लिए आत्मा का अपमान करता है !"

'जय पांडुरंगा !' कहकर नामदेव जी ने नदीं में डुबकी लगायी

और कई पत्थर ला के रख दिये उसके सामने।

"आपका पारस आप ही देख लो।"

देखा तो सभी पारस !

"इतने पारस कैसे !"

"अरे, कैसे-कैसे क्या करते हो, जैसे भी आये हों ! आप ले लो अपना पारस !"

"ये कैसे पारस, इतने सारे !"

नामदेवजी बोलेः "अरे, आप अपना पारस पहचान लो।"

अब सब पारस एक जैसे, जैसे रूपये-रूपये के सिक्के सब एक जैसे।

आपने मुझे एक सिक्का दिया, मैंने फेंक दिया और मैं वैसे सौ सिक्के ला के रख दूँ

और बोलूँ कि आप अपना सिक्का खोज लो तो क्या आप खोज पाओगे ?

उसने एक पारस उठाकर लोहे से छुआया तो वह सोना बन गया।

लोहे की जिस वस्तु को लगाये वह सोना !

"ओ मेरी पांडुरंग माऊली (माँ) ! क्या आपकी लीला है !

हम समझ रहे थे कि नामदेव दरिद्र हैं। बाप रे !

हम ही दरिद्र हैं। नामदेव तो कितने वैभवशाली हैं। नहीं चाहिए पारस,

नहीं चाहिए, फेंक दो। ओ पांडुरंग !"

परीसा भागवत ने सारे-के-सारे पारस नदी में फेंक दिये

और परमात्म-पारस में ध्यानमग्न हो गये।

ईश्वर जिस ध्यान में हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिस ध्यान में हैं,

तुम वहाँ पहुँच सकते हो। अपनी महिमा में लग जाओ। आपका समय कितना कीमती है

और आप कौन से कूड़-कपट र क्रिया-कलापों में उलझ रहे हो !

अभी आप बन्धन में हो, मौत कभी भी आकर आपको ले जा सकती है

और किसी के गर्भ में ढकेल सकती है।

गर्भ न मिले तो नाली में बहने को आप मजबूर होंगे।

चाहे आपके पास कितने भी प्रमाणपत्र हों, कुछ भी हो,

आपके आत्मवैभव के आगे यह दुनिया कोई कीमत नहीं रखती।

जब मिला आतम हीरा, जग हो गया सवा कसीरा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 213

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

‘पापांकुशा’ एकादशी १८/१०/२०१० को


पापांकुशा एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : हे मधुसूदन !

अब आप कृपा करके यह बताइये कि आश्विन के शुक्लपक्ष में

किस नाम की एकादशी होती है और उसका माहात्म्य क्या है ?


भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आश्विन के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है,

वह ‘पापांकुशा’ के नाम से विख्यात है । वह सब पापों को हरनेवाली,

स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, शरीर को निरोग बनानेवाली तथा सुन्दर स्त्री,

धन तथा मित्र देने वाली है ।

यदि अन्य कार्य के प्रसंग से भी मनुष्य इस एकमात्र एकादशी को उपास कर ले तो उसे कभी यम यातना नहीं प्राप्त होती ।


राजन् ! एकादशी के दिन उपवास और रात्रि में जागरण करनेवाले मनुष्य अनायास ही दिव्यरुपधारी,

चतुर्भुज, गरुड़ की ध्वजा से युक्त, हार से सुशोभित और पीताम्बरधारी होकर भगवान विष्णु के धाम को जाते हैं ।

राजेन्द्र ! ऐसे पुरुष मातृपक्ष की दस, पितृपक्ष की दस तथा पत्नी के पक्ष की भी दस पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं ।

उस दिन सम्पूर्ण मनोरथ की प्राप्ति के लिए मुझ वासुदेव का पूजन करना चाहिए ।

जितेन्द्रिय मुनि चिरकाल तक कठोर तपस्या करके जिस फल को प्राप्त करता है,

वह फल उस दिन भगवान गरुड़ध्वज को प्रणाम करने से ही मिल जाता है ।



जो पुरुष सुवर्ण, तिल, भूमि, गौ, अन्न, जल, जूते और छाते का दान करता है,

वह कभी यमराज को नहीं देखता । नृपश्रेष्ठ ! दरिद्र पुरुष को भी चाहिए कि वह स्नान,

जप ध्यान आदि करने के बाद यथाशक्ति होम, यज्ञ तथा दान वगैरह करके अपने प्रत्येक दिन को सफल बनाये ।


जो होम, स्नान, जप, ध्यान और यज्ञ आदि पुण्यकर्म करनेवाले हैं,

उन्हें भयंकर यम यातना नहीं देखनी पड़ती ।

लोक में जो मानव दीर्घायु, धनाढय, कुलीन और निरोग देखे जाते हैं,

वे पहले के पुण्यात्मा हैं । पुण्यकर्त्ता पुरुष ऐसे ही देखे जाते हैं ।

इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ, मनुष्य पाप से दुर्गति में पड़ते हैं और धर्म से स्वर्ग में जाते हैं ।


राजन् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था,

उसके अनुसार ‘पापांकुशा एकादशी’ का माहात्म्य मैंने वर्णन किया । अब और क्या सुनना चाहते हो?

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

आज हमारी असली शादी का दिवस है।


देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया।

ना छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।

भगवान के दर्शन से भी ऊँचा

(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

आत्मसाक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। जीव, जगत (स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत) और ईश्वर – ये सब माया के अन्तर्गत आते हैं। आत्मसाक्षात्कार माया से परे है। जिसकी सत्ता से जीव, जगत, ईश्वर दिखते हैं, उस सत्ता को मैं रूप से ज्यों का त्यों अनुभव करना, इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार। जन्मदिवस से भी हजारों गुना ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। आत्मासाक्षात्कार दिवस। भगवान कहते हैं-

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।

हजारों मनुष्यों में कोई विरला सिद्धि के लिए यत्न करता है और उन सिद्धों में से कोई विरला मुझे तत्वतः जानता है।

आत्मसाक्षात्कार को ऐसे कोई विरले महात्मा ही पाते हैं। योगसिद्धि, दिव्य दर्शन, योगियों का आकाशगमन, खेचरी, भूचरी सिद्धियाँ, भूमि में अदृश्य हो जाना, अग्नि में प्रवेश करके अग्निमय होना, लोक-लोकान्तर में जाना, छोटा होना, बड़ा होना इन अष्टसिद्धियों और नवनिधियों के धनी हनुमानजी आत्मज्ञानी श्रीरामजी के चरणों में गये, ऐसी आत्मसाक्षात्कार की सर्वोपरि महिमा है। साधना चाह कोई कितनी भी ऊँची कर ले, भगवान राम, श्रीकृष्ण, शिव के साथ बातचीत कर ले, शिवलोक में शिवजी के गण या विष्णुलोक में जय-विजय की नाईं रहने को भी मिल जाय फिर भी साक्षात्कार के बिन यात्रा अधूरी रहती है।

आज हमारी असली शादी का दिवस है। आज ईश्वर मिलन दिवस, मेरे गुरूदेव का विजय दिवस है, मेरे गुरूदेव का दान दिवस है, गुरूदेव के पूरे बरसने का दिवस है।

दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो पूरी मानवता के लिए अपने परम तत्त्व को पा सकने की खबर देने वाला दिवस आत्मसाक्षात्कार दिवस है। आज वह पावन दिवस है जब जीवात्मा सदियों की अधूरी यात्रा पूरी करने में सफल हो गया।
धरती पर तो रोज करीब डेढ़ करोड़ो लोगों का जन्म दिवस होता है।

शादी दिवस और प्रमोशन दिवस भी लाखों लोगों का हो सकता है।
ईश्वर के दर्शन का दिवस भी दर्जनों भक्तों का हो सकता है लेकिन ईश्वर-साक्षात्कार दिवस तो कभी-कभी और कहीं-कहीं किसी-किसी विरले को देखने को मिलता है। जो लोक संत हैं और प्रसिद्ध हैं
उनके साक्षात्कार दिवस का तो पता चलता है,

बाकी तो कई ऐसे आत्मारामी संत हैं जिसका हमको आपको पता ही नहीं।
ऐसे दिवस पर कुछ न करें तब भी वातावरण में आध्यात्मिकता की अद्भुत तरंगें फैलती रहती हैं।

आसोज सुद दो दिवस, संवत बीस इक्कीस।

मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस।।

देह मिथ्या हुई पढ़ते तो हो, बोलते तो हो लेकिन देह कौनसी, पता है जो दिखती है वह स्थूल देह है,

इसके अंदर सूक्ष्म देह है। विष्णुभक्त होगा तो विष्णुलोक में जायगा, तत्त्वज्ञान नहीं है तो अभी देह मिथ्या नहीं हुई।
अगर पापी है तो नरकों में जायेगा फिर पशुयोनि में आयेगा,

पुण्यात्मा है तो स्वर्ग में जायेगा फिर अच्छे घर में आयेगा, लेकिन अब न आना न जाना,

अपने आपमें व्यापक हो जाना है। जब तत्त्व ज्ञान हो गया तो देह और आकृति का अस्तित्व अंदर टिकाने वाला शरीर मिथ्या हो गया। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर सारे बाधित हो गये।

जली हुई रस्सी देखने में तो आती है लेकिन उससे आप किसी को बाँध नहीं सकते।
ऐसे ही जन्म जन्मांतरों की यात्रा का कारण जो अज्ञान था, वह गुरु की कृपादृष्टि से पूरा हो गया (मिट गया)। जैसे धान से चावल ले लिया भूसी की ऐसी-तैसी, केले से गूदा ले लिया फिर केले के छिलके को तुम कैसे निरर्थक समझते हो, ऐसे ही शरीर होते हुए भी-

देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार।

हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार।।

आज तो आप लोग भी मुझे साक्षात्कार-दिवस की खूब मुबारकबादी देना, इससे आपका हौसला बुलंद होगा। जैसे खाते पीते, सुख-दुःख, निंदा स्तुति के माहौल से गुजरते हुए पूज्यपाद भगवत्पाद श्री श्री लीलाशाहजी बापू, रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि अथवा तो और कई नामी-अनामी संत समत्वयोग की ऊँचाई तक पहुँच गये, साक्षात्कार कर लिया, ऐसे ही आप भी उस परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं, ऐसे ही साक्षात्कारी पुरूषों के इस पर्व को समझने सुनने से आत्मचाँद की यात्रा करने का मोक्षद्वार खुल जाता है।

मनुष्य तू इतना छोटा नहीं कि रोटी, कपड़े मकान, दुकान या रूपयों में ही सारी जिंदगी पूरी कर दे। इन छूट जाने वाली असत् चीजों में ही जीवन पूरा करके अपने साथ अन्याय मत कर। तू तो उस सत्स्वरूप परमात्मा के साक्षात्कार का लक्ष्य बना। वह कोई कठिन नहीं है, बस उससे प्रीति हो जाये।

असत् पदार्थों की और दृष्टि रहेगी तो विषमता बढ़ेगी। यह शरीर मिथ्या है, पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा। धन, पद ये मिथ्या हैं, इनकी तरफ नजर रहेगी तो आपका व्यवहार समतावाला होगा। धीरे धीरे समता में स्थिति आने से आप कर्मयोगी होने में सफल हो जाओगे। ज्ञान के द्वारा सत् असत् का विवेक करके सत् का अनुसंधान करोगे और असत् की आसक्ति मिटाकर समता में खड़े रहोगे तो आपका ज्ञानयोग हो जायगा। बिना साक्षात्कार के समता कभी आ ही नहीं सकती चाहे भक्ति में प्रखर हो, योग में प्रखर हो, ज्ञान का बस भंडार हो लेकिन अगर साक्षात्कार नहीं हुआ तो वह सिद्धपुरूष नहीं साधक है। साक्षात्कार हुआ तो बस सिद्ध हो गया।

इस महान से महान दिवस पर साधकों के लिए एक उत्तम तोहफा यह है कि आप अपने दोनों हाथों की उँगलियों को आमने सामने करके मिला दें। होंठ बंद करके जीभ ऐसे रखें कि न ऊपर लगे न नीचे, बीच में रखें। फिर जीव-ब्रह्म की एकता का संकल्प करके, तत्त्वरूप से जो मौत के बाद भी हमारा साथ नहीं छोड़ता उसमें शांत हो जायें। यह अभ्यास प्रतिदिन करें, कुछ समय श्वासोच्छवास की गिनती करें जिससे मन एकाग्र होने लगेगा, शक्ति का संचय होने लगेगा। धीरे-धीरे इस अभ्यास को बढ़ाते जायेंगे तो तत्त्व में स्थिति हो जायेगी। जीवन की शाम होने के पहले साक्षात्कारी महापुरूषों की कृपा की कुंजी से साक्षात्कार कर लेना चाहिए।

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

'अच्छी संगति'


सत्संगति का अर्थ है 'अच्छी संगति' ।

मानव के लिये समाज में उच्च स्थान पाने के लिये सत्संगति उतनी ही ज़रूरी है

जितनी कि जीवित रहने के लिये रोटी ।

बुरे व्यक्ति का समाज में बिलकुल भी सम्मान नहीं होता

और ऐसे व्यक्ति की संगति में रहने से कोई भी अच्छाई की राह से भटक सकता है।

अतः हर मानव को कुसंगति से दूर रहना चाहिये।

सत्संगति ही जीवन की सच्ची राह को प्रदर्शित करती है।

मनुष्य को अच्छाई-बुराई, ऊँच-नीच, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य

और पाप-पुण्य आदि में चुनने की समझ देती है।

कुसंगति मानव को पतन की ओर ले जाती है,

यह क्रोध, मोह, काम, अहंकार व लोभ को जन्म देती है।

कई बार तो कोई बुराई न होने पर भी बुरी संगति की वजह से मनुष्य को दोषी ठहरा दिया जाता है

और सत्संगति नकारे व्यक्ति को भी जीवन की सही राह पर धकेल देती है।

भीष्म-पितामह,आचार्य-द्रोण और दुर्योधन जैसे वीर पुरुष भी कुसंगति के कारण राह भटक गये थे।

इसीलिये हर मनुष्य को चन्दन के वृक्ष की तरह अटल रहना चाहिये

जो कि विषैले साँपों से घिरे रहने पर भी सदा महकता रहता है।

सत्संगति कुन्दन है। इसको पाने के बाद काँच के समान मानव भी हीरे की तरह चमक उठता है।

अतः आज के युग में प्रगति का यही सही रास्ता है ।

मानव को सज्जन व्यक्तियों की संगति से जीवन को सार्थक बनाना चाहिये

और सदा आदर प्राप्त करना चाहिये। सत्संगति का अर्थ है 'अच्छी संगति' ।


मानव के लिये समाज में उच्च स्थान पाने के लिये सत्संगति उतनी ही ज़रूरी है

जितनी कि जीवित रहने के लिये रोटी ।बुरे व्यक्ति का समाज में बिलकुल भी सम्मान नहीं होता

और ऐसे व्यक्ति की संगति में रहने से कोई भी अच्छाई की राह से भटक सकता है।

अतः हर मानव को कुसंगति से दूर रहना चाहिये।

सत्संगति ही जीवन की सच्ची राह को प्रदर्शित करती है।

मनुष्य को अच्छाई-बुराई, ऊँच-नीच, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य और पाप-पुण्य आदि में चुनने की समझ देती है।

कुसंगति मानव को पतन की ओर ले जाती है,

यह क्रोध, मोह, काम, अहंकार व लोभ को जन्म देती है।

कई बार तो कोई बुराई न होने पर भी बुरी संगति की वजह से मनुष्य को दोषी ठहरा दिया जाता है

और सत्संगति नकारे व्यक्ति को भी जीवन की सही राह पर धकेल देती है।


भीष्म-पितामह,आचार्य-द्रोण और दुर्योधन जैसे वीर पुरुष भी कुसंगति के कारण राह भटक गये थे।

इसीलिये हर मनुष्य को चन्दन के वृक्ष की तरह अटल रहना चाहिये जो कि विषैले साँपों से घिरे रहने पर भी सदा महकता रहता है।सत्संगति कुन्दन है। इसको पाने के बाद काँच के समान मानव भी हीरे की तरह चमक उठता है।


अतः आज के युग में प्रगति का यही सही रास्ता है ।


मानव को सज्जन व्यक्तियों की संगति से जीवन को सार्थक बनाना चाहिये और सदा आदर प्राप्त करना चाहिये।

शनिवार, 25 सितंबर 2010

क्या झक मारा पुरुषार्थ कर के ?

सबके दिल में दिलबर है

सबका मंगल ,सबकी उन्नति ,

और सबके मंगल में अपना परम मंगल जगाना ..

ये पुरुषार्थ है … * पुरुषार्थ भी हो पर शास्त्र और संत सम्मत पुरुषार्थ हो …

अभी तो दुनिया के सरे लोग पुरुषार्थ कर रहे हैं ,

पर पहले से ज्यादा अशांति है , पहले से ज्यादा झगडे हैं ,

पहले से ज्यादा असुरक्षा है , पहले से ज्यादा बीमारी है ,

क्या झक मारा पुरुषार्थ कर के ?

दूसरे का दुःख हरने में लग जाओ ..




तो आपके दुःख दुखहारी हरी के आनंद से नन्हा हो जायेगा ,

दूसरे को सुखी देख कर आप सुखी रहे तो ,

आपको सुखी रहने की मजदूरी नहीं करनी पड़ेगी

मुफ्त में आपका ह्रदय सुखी होगा इसका नाम पुरुषार्थ है ….

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें २ सितम्बर 2010


Gokul me jo kare niwas,
Gopiyo sang jo rachaye raas,
Devki-Yashoda jinki maiya,
aise hamare kishan kanhaiya.
May Krishna fulfill all your wishes.
Happy Janamasthami!

*********************************

Murli Manohar,Brij ke Dhrohar…
Murli Manohar,Brij ke Dhrohar.
Wo Nandlala Gopala,Bansi Ki Dhun Par Sabke Dukh HarneWala.
Sab Milkar Machaye Dhoom Ki Krishna Ane Wala Hai

*****************************************

Krishna jinka nam,gokul jinka dham,
ase SHREE KRRISHN bhagwan ko,ham sab ka pranam.
JANMASTHMI KI SHUB KAMNAYE.
Jai shree krishna


Mathura ki khushbu gokul ka haar,
brindaban ki sugandh
brijj ki fuhaar,
radha ki ummid or khanhaiya ka pyaar,
Mubarak ho aapko janmastami ka tyohaar.
Wish U Very Happy Janamastami.

May the Natkhat Nandlal always give you
many reasones to be Happy and
you find peace in Krishne consciousness.
Happy Janmashtami..


dahi ki handi barish ki fuhar,
makhan churane aaye nandlal ,
mubarak ho apko
janamasthmi ka ye tyohar happy janamasthmi

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

पूज्य बापू का पावन सन्देश.....



हम धनवान होगे या नहीं, चुनाव जीतेंगे या नहीं इसमें शंका हो सकती है परंतु भैया !

हम मरेंगे या नहीं, इसमें कोई शंका है?

विमान उड़ने का समय निश्चित होता है, बस चलने का समय निश्चित होता है,

गाड़ी छूटने का समय निश्चित होता है

परंतु इस जीवन की गाड़ी छूटने का कोई निश्चित समय है?


आज तक आपने जगत में जो कुछ जाना है, जो कुछ प्राप्त किया है....

आज के बाद जो जानोगे और प्राप्त करोगे, प्यारे भैया !

वह सब मृत्यु के एक ही झटके में छूट जायेगा,

जाना अनजाना हो जायेगा, प्राप्ति अप्राप्ति में बदल जायेगी।


अतः सावधान हो जाओ।

अन्तर्मुख होकर अपने अविचल आत्मा को, निजस्वरूप के अगाध आनन्द को,

शाश्वत शांति को प्राप्त कर लो। फिर तो आप ही अविनाशी आत्मा हो

जागो.... उठो.... अपने भीतर सोये हुए निश्चयबल को जगाओ।





सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को अर्जित करो। आत्मा में अथाह सामर्थ्य है।

अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके।

अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं

जो तुम्हें दबा सके।

सदा स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ तुम्हारी शक्ति भी

बिखरती रहती है।

अतः वृत्तियों को बहकाओ नहीं।

तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधना-काल में आत्मचिन्तन में लगाओ

और व्यवहार-काल में जो कार्य करते हो उसमें लगाओ।

दत्तचित्त होकर हर कोई कार्य करो। सदा शान्त वृत्ति धारण करने का अभ्यास करो।

विचारवन्त एवं प्रसन्न रहो। जीवमात्र को अपना स्वरूप समझो।

सबसे स्नेह रखो। दिल को व्यापक रखो।

आत्मनिष्ठ में जगे हुए महापुरुषों के सत्संग एवं सत्साहित्य से जीवन को

भक्ति एवं वेदान्त से पुष्ट एवं पुलकित करो।

वाह बापू वाह ...कितना समजाते हो..

हम नादान फिर भी नही समज पाते...

जय हो....

शनिवार, 24 जुलाई 2010

गुरुपूर्णिमा २०१०

श्री सुरेशानन्दजी महाराज सत्संग
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मेरे गुरु सुई की नोक से सुमेरु चलाते है…

अमदावाद आश्रम मे सदगुरूदेव ने केवल संकल्प किया

तो दूसरे दिन अखबार मे आया कि कारगिल के सैनिक चोटी पे पहुंच गए है…








भक्ति होनी चाहिऐ..
तभी मेरे गुरु क्या है,

ये भक्त के समझ मे आएगा..
कायरता नही होनी चाहिऐ ,
वीरता होनी चाहिऐ !


फौलादी है बाहें मेरी
चट्टान को भी तोड़ सकती ..”


ऐसा विश्वास होना चाहिऐ…

सदगुरूदेव कौन है ये जानो…
महाभारत मे आता है,



कि अर्जुन युध्द के मैदान मे हथियार डालकर बैठ गए..
तो श्रीकृष्ण भगवन ने ऐसा नही कहा कि चलो ,


उठाओ धनुष….बलकि अर्जुन को युध्द के मैदान मे सत्संग सुनाया..

परिणाम ये आया कि अर्जुन युध्द जित गए…


अभी भी बापूजी आएंगे ,
हमे उनके आशीर्वचन सुनने को मिलेंगे तो हमारा भी कल्याण होगा…


गुरुदेव का आप के सर पे हाथ ....





प्रल्हाद कहते है अपने गुरु(नारद जी) को कि ,
अभी मुझ मे ९ दोष है , हे गुरुदेव.. मेरे सिर पे आप हाथ रख दो”….


आप भी एक प्रयोग करे ….मन से ही सदगुरूदेव के चरणों मे अपना सिर रख दो..
मन से ही ऐसी भावना करो….कि आप ने सदगुरु देव के चरणों मे अपना सिर रखा ….



और सदगुरूदेव ने आप के सिर पे हाथ रखा ,
तो आपकी शक्तिया जो अधोगामी हो रही थी,
उर्ध्वगामी होने लगेंगी…
भावना मे बड़ी शक्ति है…



आप यहा आते तो ऐसा कई बार आप के मन मे आता होगा
कि एक बार सदगुरूदेव के चरण छू लू..




लेकिन इतनी भीड़ मे ये कैसे संभव होगा ?



सेवाधारी तो आप को नजदीक भी नही आने देंगे…
लेकिन आप मन से भावना करो तो रोज सुबह अपने ही घर मे भी आप भावना कर के
सदगुरूदेव के चरणों मे सिर रखो
और उन्होने आप के सर पे हाथ रखा ऐसा अनुभव कर लो….



प्रेम की बोली


हमारे सदगुरू सुई की नोक से सुमेरु चलाते ये तभी जान पाते है जब भगवान को पहेचाने..
उसके लिए भक्ति हो ,
श्रध्दा हो..

और भक्ति कैसी हो
नामदेव जैसी हो..
गोरक्षनाथ जैसी हो…

तभी जान पाते है कि , मेरे सदगुरू कौन है?

(सुरेश बापजी श्लोक बोल रहे है..)












मेरे सदगुरू बिना पैरो के सारे जगत मे जाकर आये…
बिना कर(हाथ) के करम करे….
बिना कान के सब सुन लेते है..ऐसे मेरे सदगुरूदेव है…




हर राज्य की एक बोली होती है..
जैसे महाराष्ट्र की मराठी, पंजाब की पंजाबी ,
गुजरात की गुजराथी बंगाल की बंगाली..
है ना ?



ऐसे प्रेम राज्य की भी एक बोली होती है ,
जो कानो से नही सुनी जाती ..
ह्रदय के माध्यम से सुनी जाती है…मुँह से नही बोली जाती ,
आंखो से बोली जाती है….




जयश्री बहेन का अनुभव

एक घटना सुनाता हूँ..

स्कूल मे वार्षिक उत्सव था…कार्यक्रम चल रहा था,
अचानक आग लगी…
बाहर जाने के लिए एक ही दरवाजा और कम्पौंड की दीवार १० फ़ीट ऊँची…

एक बहेन अपने २ बच्चो को लेकर भाग रही इधर...उधर..
१० फ़ीट ऊँची दीवार ..दोनो बच्चो को लेकर कैसे जाये?

कैसे भी दोनो बच्चो को उठाकर दीवार के उसपार फेका..

लेकिन खुद कैसे दीवार से कुदे?..
बहेन का शरीर भारी था…जयश्री उस बहेन का नाम है

आग कंधे तक आ गयी ..लपेटे बढ़ने लगी ..
बहेन ने दीक्षा ली हुयी थी.. गुरुमंत्र का जप करती रही..

कोई बात नही भगवान रखे तो तेरी मर्जी..
उठा लो तेरी मर्जी..
जैसा नाच नचा ले प्रभु..

साडी जली ..चमडी जली..
बहेन गुरुमंत्र जप करती रही..

अचानक किसी अदृश्य शक्ति ने बहेन को उठाकर दीवार के उसपार फ़ेंक दिया..

बहेन को जरासी चोट आई और थोडी चमडी जली थी बस..

बापूजी ने अदृश्य शक्ति के रुप मे बचाया….




नास्तिक लोग नही मांगेंगे..
न माने तो उनकी मर्जी…

सीता माता के लिए साक्षात् अग्निदेव ने प्रगट होकर बताया था कि ,
सीता माता पवित्र है फिर भी धोबी नही माना…
साक्षात् अग्निदेव के प्रमाण को भी नही माना..

ऐसे ही उल्लू नही मानता कि सूरज उगा है..
नही मानता तो नही माने..आँख बंद करके बैठे
इस युग मे भी ऐसा हो रहा है..

जो लोग नही मानते तो ना माने ..
घाटा किसको हो रहा है?

आज आयोजन पुरा होगा...
जप-तप -सेवा मे लगे रहे..
साधन -भजन -सुमिरन करते रहे…


और अहमदावाद , सूरत आश्रम मे कही ध्यान योग शिविर लगा तो अवश्य अटैँड करे..
आश्रम की धरती पे बैठने मात्र से अद्भुत लाभ होते है…
साधना मे और भी उन्नत होंगे…

(सुरेश महाराज कोई श्लोक बोल रहे है…)


जिन्होंने अपनी आंखो से ईश्वर प्राप्त महापुरुषों का दर्शन नही किया
उसके आंखो मे क्षार पड़े
क्षार याने तेजाब ..
एसिड होता है.
मने व्यर्थ है ऐसी आँखे…


भूल न जाऊ तुम्हे कही ये बिनती बारं बार........

भूल न जाऊ तुम्हे कही ये बिनती बारं बार...........

कभी न होता किसी के लिए बंद तुम्हारा द्वार............


भूल न जाऊ तुम्हे कही ये बिनती बारं बार ............



हरी ओम…

कही कही ना सुनाओ

सोयी पुंज पाए है जो भक्ति करे चित्त लाये ...
जरामरण से छूटी पड़े अजर अमर हो जाये ...
जो तेरे घट प्रेम है, तो कही कही न सुनाओ ...
अंतर्यामी जाने है अंतर घट के भाव...


अपने अन्दर प्रेम है..

भक्ति है तो किसी को सुनाने से क्या मिलेगा?








अंतर्यामी है वो सब जानते है…



अन्दर के अंतर्यामी मे से अंतर कैसा रहेगा ?


ह्रदय की गहराई मे जो बैठे है उनसे अंतर कैसा रहेगा ?


वो अन्दर ही है सब जानते है..



इसलिए कही कही नही सुनाओ ..

मैंने ऐसा सुमिरन किया , अनुष्टान किया …इतना पाठ किया..


सुमिरन ऐसा कीजिए ...दूजा कहे न कोई...

होठ न प्रकट देखिए ...प्रेमे जपियो कोई ...

जहा जहा बछड़ा फिरे ...तहा तहा फिरे है गाय ...

कहे मल्लुक जहा संतन...तहा रामैय्या जाये....


मलूक जी कहते है कि जहा भक्त पुकारते वह संत चले जाते…
जैसे गाय अपने बछड़े के पीछे पीछे जाती..

अब पेतलावाद के साधक और रतलाम के साधको का खूब खूब प्रेम था
तो सदगुरूदेव यहा पधारे है…

सुरेश बापजी के सत्संग प्रवचन से...



गुरु पूर्णिमा पर्व की सभी साधक भाई-बहनों को खूब-खूब बधाई ...




हरिओम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्

रविवार, 18 जुलाई 2010

मैं बीडी,सिगरेट, घुटखा, का बहुत ज्यादा सेवन करता था ...

पहेले मैं बीडी ,सिगरेट, घुटखा,जर्दा का बहुत ज्यादा सेवन करता था ...

इससे मेरा मुह ख़राब हो गया ...

और बोलना भी कठिन हो रहा था .....

पूज्य बापूजी की योवन सुरक्षा भाग २ पुस्तक मेने पड़ी .....



और उस दिन से मेरा नशा छुट गया

इस पुस्तक ने मुझे निवार्श्यी बना दिया

पहेले मेरा स्वभाव बहुत गुस्से वाला था

घर पर रोज़ झगडा होता था,और मेरा मन बहुत उदास रहेता था

पूज्य बापूजी से दीक्षा लेने के बाद मेरा मन और स्वभाव शांत हो गया

कोई भी काम हो पूज्य बापूजी की कृपा से रास्ता अपने आप खुल जाता है

जब भी कोई बड़ा निर्णय लेना होता है

तो बापू जी के श्रीचित्र के सामने ७-८ मिनट एकटक देखते हुए ॐ ॐ जपते हुए

एकाग्रता और अनासक्ति का अवलंबन लेता हु ...

और गुरु भगवन की प्रेरणा से मुझे सब मिल जाता है

भोतिक व्यवहार,भोतिक वातावरण में आत्मिक सम्बन्ध जोड़ने का,

आत्मिक शक्ति से जुड़ने का मुझे सीधा रास्ता ही मिल गया है....

धन्य है एकलव्य की गुरुभक्ति,

जिसने कइयो को प्रेरणा की गुरुकृपा का फायदा उठाने की

श्री रामजी ने गुरुकृपा का फायदा लिया वसिष्ठ जी से...

और वसिष्ठ जी बोलते है योगवसिष्ठ में...

है रामजी मैं बाज़ार से गुजरता हु तो

मुर्ख लोग मेरे लिए न जाने क्या क्या अफ्वाये उड़ाते है ....

तो आज मेरे गुरु देव के लिए बोलने वाले कितना भी भके...





लेकिन हमारा अनुभव नही तोड़ सकते...

गुरु शिष्य के अमर सम्बन्ध को तोड़ने की ताकत कुप्र्चारको मैं कहा??????

कुप्रचार करने वाले भी अगर सुधर जाये तो अथाह फायदा होगा उनको,

मगर ऐसा भाग्य कब होगा उनका????????

हरिओम्म्म्म्म्म्म्

लक्ष्मण सुथार..चिमनपुरा,जिला.पाली (राज.)

एक साधक की जुबानी...

वाह बापू वाह आपने कितनो का ....




केसे केसे भला किया है ...

कितनो की नैया पार लगा दी है आपने बापूजी ....जिसका कोई भखान नही

वाह बापू वाह ....

जय हो...

जपते रहे तेरा नाम जय बापू आशाराम....


ऐ नादान इन्सान एक बार सर झुका के तो देख बापू के दर पे ....

अगर झोली न भर दे तो कहना .....

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

संभोग से सत्यानाश

वासनाक्षय के लिये ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है।

कैसा भी योगाभ्यास करने वाला साधक हो, धारणा, ध्यान, त्राटक आदि करता हो,

लेकिन यदि वह ब्रह्मचर्य का आदर नहीं करता, संयम नहीं करता तो उसका योग सिद्ध नहीं होगा।

साधना से लाभ तो होता ही है लेकिन ब्रह्मचर्य के बिना उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिलती।

जो लोग 'संभोग से समाधि' वाली बातों में आ गये हैं वे सब रोये हैं।

संभोग से समाधि नहीं होती, संभोग से सत्यानाश होता है साधना का।

बड़े-बड़े योगी भी संभोग की ओर गये हैं तो उनका पतन हुआ है फिर भोगी की क्या बात करें?

संभोग से यदि समाधि उपलब्ध होती तो करोड़ों मनुष्य कर ही रहे हैं, कीट-पतंग जैसा जीवन बिता रहे हैं।

समाधि किसकी लगी? आज तक इस प्रकार किसी को समाधि न लगी है न कभी लगेगी।


राम के सुख के बाद संसार में यदि अधिक-से-अधिक आकर्षण का केन्द्र है तो वह काम का सुख है।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इन पाँचों विषयों में स्पर्श का आकर्षण बहुत खतरनाक है।

व्यक्ति को कामसुख बहुत जल्दी नीचे ले आता है।

बड़े-बड़े राजा-महाराजा-सत्ताधारी उस काम-विकार के आगे तुच्छ हो जाते हैं।

काम-सुख के लिये लोग अन्य सब सुख, धन, वैभव, पद-प्रतिष्ठा कुर्बान करने के लिये तैयार हो जाते हैं।

इतना आकर्षण है काम-सुख का।

राम के सुख को प्राप्त करने के लिए साधक को इस आकर्षण से








अपने चित्त को दृढ़ पुरुषार्थ करके बचाना चाहिये।







जिस व्यक्ति में थोड़ा-बहुत भी संयम है, ब्रह्मचर्य का पालन करता है




वह धारणा-ध्यान के मार्ग में जल्दी आगे बढ़ जायेगा।





लेकिन जिसके ब्रह्मचर्य का कोई ठिकाना नहीं ऐसे व्यक्ति के आगे साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण आ जायें,


भगवान विष्णु आ जायें, ब्रह्माजी आ जायें, माँ अम्बाजी आ जायें,


सब मिलकर उपदेश करें फिर भी उसके विक्षिप्त चित्त में आत्मज्ञान का अमृत ठहरेगा नहीं।


जैसे धन कमाने के लिए भी धन चाहिये, शांति पाने के लिये भी शांति चाहिये,


अक्ल बढ़ाने के लिये भी अक्ल चाहिये, वैसे ही आत्म-खजाना पाने के लिये भी आत्मसंयम चाहिये।


ब्रह्मचर्य पूरे साधना-भवन की नींव है। नींव कच्ची तो भवन टिकेगा कैसे?



सत्संग प्रवचन से....

रविवार, 11 जुलाई 2010

दुनिया में दो विभाग हैं


हरि सम जग कछु वस्तु नहीं, प्रेम पंथ सम पंथ,
सदगुरू सम सज्जन नहीं, गीता सम नहीं ग्रंथ…

हरि सम जग कछु वस्तू नहीं –

हरि हैं नित्य, जगत है अनित्य,जगत है जड़ और हरि हैं ज्ञान स्वरूप, हरि हैं चेतन,
जगत है जड़ , हरि हैं सुख रुप और जगत है बदलने वाला…

दुनिया में दो विभाग हैं -

एक वोह, जो हमारा है, जैसे मकान, दुकान, घर…
और दूसरा वोह है, जो हमारा नहीं है…सारे मकान तो मेरे नही हैं,

सारी दुकान तो मेरी नहीं हैं…

तो एक वोह होता है जिसे आप बोलते हैं मेरा घर,
मेरी पत्नी, मेरा बेटा , मेरा पैसा….
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और दूसरा वोह जो हमारा नहीं है…
और जिसको मेरा बोलते हैं तो वोह बहुत थोडा है…और जो मेरा नही है ,

उसका तो कोई अंत नहीं है…तो जिसको मेरा मेरा मानते हैं,
वोह सदा साथ में रहेगा, मरने के बाद में साथ चलेगा?

दूसरा मिले कि नहीं मिले, लेकिन जो है, वोह छोड़ना पड़ेगा कि नही ?


दिल पे हाथ रख कर देखो…जो मेरा नहीं है, वोह तो नही है ,

लेकिन जिसको मेरा मानते हैं, वोह भी छोड़ के जाना पड़ेगा…तोक्या करें?

उसका सदुपयोग करें, उस से ममता कम करें, और जिसका सब कुछ है,

वोह वास्तविक में मेरा था, मेरा है, और मेरा रहेगा…कौन मेरा था?बोले आत्मा मेरा था,

अगले जनम में भी…और मेरा है, बचपन मे भी था, अभी भी है,
और मरने के बाद भी रहेगा…शरीर मरेगा फिर भी मेरा आत्मा तो रहेगा ना?

तो जो मेरा था,
मेरा है और मेरा रहेगा, उस से तो प्रीति करो…जो सदा है उस का नाम है हरि,
रोम रोम में राम रमता है, तो उसको आप”राम” कह दो…दुःख और थकान हर लेता है,

तो उसको “हरि” कह्तेहैं…दिन भर आपा-धापी में रात को मन इन्द्रियां में,
मन बुद्धि में, और बुद्धि उस चैतन्य में…थकान, दुःख, चिन्ता हर लेता है…

उस परमेश्वर का नाम हो गया “हरि”…और वोह आत्मा है, इसलिये हरि ओम्म्म्म्म्म्म्म्म्म. …



तो अब क्या करना है…हरि ॐ का तो गुंजन करना है और वोह ही मेरा हैं…

और यह थोड़े दिन के लिए मेरा मेरा है, छूटने वाला है…और वोह सदा के लिए मेरा है…

यह बात समझने में आपको देर लगी क्या? यह बात झूठी लगती है क्या?

सच्ची है, पक्की है?तो जो अपना नहीं है, वोह तो नहीं है…जिसको अपना मानते हैं,
वो भी सदा नहीं रहता…

मेरे खिलोने, खिलोने रहे क्या? मेरी शर्ट,मेरी नन्ही सी बुश-शर्ट,

अभी खोजों तो मिलेगी नहीं…कोई दे भी देतो इतने बडे बाबा को इतनी सी बुश-शर्ट कैसे आएगी?

लेकिन उस समय जो मेरा हरि साथ में था, वोह अभी भी है…उसी को बोलतेहैं -

आड़ सत् , जुगात सत् , है भी सत्, होसे भी सत्…

तो जो सत् है, उस को तो अपना मानो, प्रीति करो…और जो बदलने वाला है उसका उपयोग कर लो…माता की,
पिता की, कुटुंब की, समाज की,भगवान् की सेवा कर लो,

बस हो गया…दोनो हाथ में लड्डू…और उल्टा क्या करते हैं,

जो अपना नहीं था , अपना नहीं रहेगा, उसकोतो बोलते हैं हमारा है,

और खपे खपे खपे…और जो अपना था,है, रहेगा,

उसका पता नहीं…इसीलिये अशांति बढ़ गयी सारे वर्ल्ड मे ….सारी दुनिया में…



हरिओम्म्म्म्म्म्म्




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मंगलवार, 6 जुलाई 2010

माता-पिता की महिमा (बाल संस्कार केंद्र स्पेशल )


माता तो सर्वोच्च है, महिमा अगम अपार!
माँ के गर्भ से ही यहाँ, प्रकट हुए अवतार!!


माता तो सर्वोच्च है, महिमा अगम अपार!
माँ के गर्भ से ही यहाँ, प्रकट हुए अवतार!!

माँ की महत्ता तो मनुज, कभी न जानी जाय!
माँ का ऋण सबसे बड़ा, कैसे मनुज चुकाय!!

मात-पिता भगवान-से, करो भक्ति भरपूर!
मात-पिता यदि रुष्ट हों, ईश समझलो दूर!!

पिता दिखाए राह नित, दे जीवन का दान!
मान पिता को दे नहीं, अधम पुत्र को जान!!

रोम-रोम में माँ रहे, नाम जपे हर साँस!
सेवा कर माँ की सदा, पूरी होगी आस!!

माँ प्रसन्न तो प्रभु मिलें, सध जाएँ सब काम!
पिता के कारण जगत में, मिले मनुज को नाम!!

मात-पिता का सुख सदा, चाहा श्रवण कुमार!

मात-पिता के भक्त को, पूजे सब संसार!!

माँ के सुख में सुख समझ, मान मोद को मोद!
सारा जग मिल जाएगा, मिले जो माँ की गोद!!

माँ के चरणों में मिलें, सब तीरथ,सब धाम!
जिसने माँ को दुःख दिए, जग में मरा अनाम!!

माँ है ईश्वर से बड़ी, महिमावान अनंत!
माँ रूठे पतझड़ समझ, माँ खुश, मान वसंत!!

सोमवार, 5 जुलाई 2010

११ साल के बाद आये है तो खजाना देके जायेंगे…

सदगुरूदेव संत शिरोमणि परमपूज्य श्री आसारामबापूजी की अमृतवाणी :-





भगवान कृष्ण शुध्द हवा के लिए वृन्दावन वालो को लेकर वन दिवस मनाने गए …

दोपहर मे यहावहा जंगल घूमते हुए देखा की एक सूखे कुए मे एक किरकिट बहोत झट पटा रहा है…

श्रीकृष्ण भगवान ने उसपे दृष्टी डाली तो उसका झटपटाना रुका और उसके शरीर से दिव्य पुरुष प्रगत हुआ…

तो कृष्ण भगवान बोले..“स्वागत है देवता...कैसे पधारे?

तो वो दिव्य पुरुष बोला..“हे माधव, आप जानते है ,मैं कौन हूँ..

आप ने ही मुझे किरकिट के योनी से मुक्ति दिलाई है

और उपस्थित लोगो को उपदेश देने के लिए मुझे पूछ रहे हो….

मैं इतना पराक्रमी राजा था की बडे बडे राजा को डर लगता और वीर राजाओ का मैं मित्र था….

मैंने अपने यश के लिए इतनी गाये दान की ,

आसमान के तारे गिन सकते है लेकिन मैं ने इतनी गाये दान की इसको कोई गिन नही सकता….

अभी भी मेरा नाम लिया जाता है…”

तो भगवन कृष्ण ने पूछा “क्या तुम राजा नृग हो ?”

तो दिव्य पुरुष बोला “ हा मैं वोही अभागा राजा नृग हूँ…

जो भी किया अंहकार दिखाने के लिए किया …

गुरु के चरणों मे नही गया,






सत्संग के वचन नही सुने इसलिए ये स्थिति हो गयी थी..

अब आप की कृपा से मुक्ति मिली है..”

तो कितने राजे महाराजे भी अजगर हो जाते, हिरन हो जाते,

किरकिट हो जाते , कछवा हो जाते…

इससे बचने के लिए गुरु से मंत्र दीक्षा और सत्संग ही उपाय है…


तो कल मंत्र दीक्षा मिलेगी… हाई बीपी ,

लो बीपी नही हो, हार्ट अटैक न हो by– पास ऑपरेशन नही करना पड़े ऐसा भी एक मन्त्र देंगे..


११ साल के बाद आये है तो खजाना देके जायेंगे…








२९ नवम्बर २००७,
पेतलावाद नगरी
(म. प्रदेश )

बापू जी के सत्संग परवचन से...

वाह मेरे जोगी ....

कितना ख्याल रखते हो सबका ....

तेरे दर पे हो बसेरा ....

मेरे गुरुदेवा....

तुम्हारे बिन नही रहना...

अब दूर ऐ हुजुर...

जय हो....

जपते रहे तेरा नाम...जय बापू आशाराम...

रविवार, 4 जुलाई 2010

साप-शिडि का खेल....

श्री सुरेशानन्दजी की अमृतवाणी ......




साप-शिडि का खेल खेलते है न..मैंने बचपन मे खेला था ,

आप ने भी खेला होगा…उस खेल मे साप के मुह मे आये तो निचे गिर जाते और शिडी मिलती तो ऊपर चले जाते….

ऐसे ही फिल्म के चक्कर मे पड़े ,

मैच देखने बैठ गए तो समझो साप के मुह मे आ गए…

साधना से निचे गिर गए…और ईश्वर प्रीति मे मन लगा ,

जप ध्यान हुआ तो समझो के ईश्वर के और पास आ गए..

माने शिडी मिल गयी , ऊपर उठ गए….



मंजिल आनेवाली है कि साप के मुह मे गिर जाते…तो सफलता से दूर हो जाते….

कभी कभी ऐसी विपरीत परिस्थितियाँ भी आती है..जीवन मे विफलता भी आती है…

लेकिन डरे नही…ऊँचे शिखर के साथ हमेशा खाई होती है…

ये ध्यान मे रखे और गुरुदेव से प्रार्थना करे…”गुरुदेव मदद करो..आप की शक्ति का कोई पार नही…”

..एक बार सनकादी ऋषी विष्णु भगवानजी से मिलने गए तो जय विजय द्वार पाल थे ,

उन्होने मिलने से मना कर दिया…तो ऋषियोँ ने उन्हें श्राप दिया कि उन्हें ३ बार असुरों की योनी मे जाना पड़ेगा….

..भगवान आये , उन्होने सनकादी ऋषियोँ का श्राप सुना , तो बोले कि ,

“हे महापुरुषोँ..जय विजय जिनको आने देना चाहिऐ उनको आने नही दिए तो उनको आप ने सजा दे दी…

उनका ये ही अपराध है ना कि , आप को आने नही दिया?”

..सनकादी ऋषी बोले, ” हा , ये ही अपराध है…”

तो भगवान बोले कि , मेरे द्वारपाल इसलिए दोषी है कि ,

जिनको आने देना चाहिऐ उन्हें आने नही दिया…लेकिन मैं भी उतना ही दोषी हूँ..




क्यो कि मैं भी प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय का द्वारपाल हूँ…

और मुझ जैसे द्वारपाल के होते हुए भी आप के ह्रदय मे गुस्सा आ जाता है..

क्रोध आ जाता है…इसीलिए जय विजय को श्राप दिया आप ने…तो गलती तो मेरी भी है ,

मैं सही ढंग से काम नही कर सका..मेरे होते हुए भी मनुष्य के ह्रदय मे क्रोध आता है तो

मैं अपना काम सही ढंग से नही कर पाया…इसलिए जब जब जय विजय को असुर बनके धरती पे जाना पड़े

तब तब मैं भी इनका उद्धार करने के लिए ४ बार धरती पे जाऊंगा….!”

..कैसी है भगवान की करुणा…!

अपने आप को दंड देते है…ऐसे ही गुरुदेव अपना उध्दार करने के लिए कितना कष्ट सहते है…

इसलिए हम प्रार्थना करते है कि ,

“त्वमेव माता च , पिता त्वमेव

त्वमेव बंधुश्च , सखा त्वमेव”




गुरुदेव ही हमारी माता है और हमारे पिता है …

माता भी कभी ध्यान नही देंगी, लेकिन गुरुदेव अपने भक्तो पे सदैव करुना कृपा रखते….

भगवान की भगवत-ता कैसी है..जटायु के पंख कट गए तो भगवान उसे बोलते है..

“माफ करना , मैं समय से आ जाता तो तुम्हारे पंख नही कटते…!”

कैसी भगवान की भगवत-ता..!!ऐसे ही गुरुदेव से मंत्र मिलता,

नाम मिलता तो उसे श्रध्दा से जपे….गुरुदेव ऐसे करुणा के सागर है जैसे भगवान है…

कितना सुन्दर उत्तर दिया भगवान ने सनकादी ऋषियोँ को ..

मैं भी द्वारपाल हूँ..मुझ को भी सजा दो…!

गुरुदेव भी हमारे दोष मिटने के लिए ऐसे ही करुणा कृपा बरसते है…

ऐसा तेरा प्यार गुरुवर भूल न पाए..




आप ही हमारे दोष को मिटाए

तुझ मे ही प्रेम और प्रीति बढाये…

ऐसा तेरा प्यार गुरुवर भूल न पाए….

श्री सुरेशानन्दजी की अमृतवाणी .........

२३ नवम्बर २००७ , शुक्रवार ,
बरोडा ध्यान योग शिबिर,

वाह बापू वाह ..

बापू तो इतना अच्छा समजाते ही है....

उनकी राह पर चलकर सुरेशानंद जी भी उतना ही सरल समजाते है ..

धनभाग हमारे जो हमने ऐसा गुरु पाया ....

जय हो ....

जपते रहे तेरा नाम... जय बापू आशाराम ....

शनिवार, 3 जुलाई 2010

हर रोज नयी एक शादी है.... (सत्संग)



एक बार अहमदाबाद से सूरत आ रहे थे

तो लोगो ने कार फूलों से सजा दी थी….

हिजडो को लगा कोई दूल्हा जा रहा है….

उन्हों ने घागरा हिलाते हुए गाड़ी रोकी…

गाड़ी का कांच निचे किया ..पर्दा हटाया….

तो शिवलाल काका भी थे…

इधर भी दाढीवाला बाबा…उधर भी बाबा…

तो हाय हाय गाड़ी जाने दो… .

.तो हम ने पूछा , “क्यो रोकी थी गाड़ी ?”…

.तो बोले कि , हम को लगा दूल्हा है ,

इधर तो साधुबाबा है….

तो हमने कहा पैसे चाहिऐ ना ?

दूल्हा तो एक बार बनता और १०० बाराती खड़ा करता…

हम तो जहा जाते भगवान के लाखो बाराती आते….

अरे इनको पैसे दे दो….हमारी तो रोज शादी है…

हाय हाय



हर रोज नयी एक शादी है
हर रोज मुबारक बाजी है
जब आशिक मस्त फकीर हुआ…
तो क्या दिलगिरी बाबा ?

शादी माने शाद आबाद रहे….

यहा तो रोज नया सुख नया आनंद.

सूरज रोज उगता लेकिन हर दिन नया दिवस होता है सूर्य नारायण का…

.यहा तो हर दिन मुबारक बाजी है..सत्संग हो चाहे नही हो…….

(पूज्य सदगुरूदेव ने भजन के पद बताते हुए बहोत सुन्दर विश्लेषण भी दिया..)..

जैसे सूरज रोज नया आनंद नया प्रकाश लेकर आता….

ऐसे स्व का स्वरूप भी आत्मा के आनंद मे जगमगा रहा है….



कोई मुझे पूछता है , “तबियत कैसी है?” …

तो मैं पूछता हूँ , “बीमार से मिलाने आये क्या?” ….

.ईश्वर में रमण करते तो शरीर के पित्त, वायु , कफ , हाड मास कैसे है

पूछता….साधक है तो कैसी है साधना ? ऐसे पूछे ….

और गुरु को तो वो भी नही पूछा जाता…

दुर्भाग्य है ऐसे लोगो का….संत से ऐसे नही पूछते …

बुध्दी दाता का साक्षात्कार ..सदा सुख…आत्माराम में आ जाओ…..

ज्ञान स्वभाव में आओ..शांत स्वभाव होगा तो कामकाज बढिया होगा…

सदा दिवाली संत की आठो प्रहर आनंद

अकलमता कोई उपजा गिने इन्द्र को रंक…

..आज सुबह पंचगव्य मिला..कल आंवले का रस..(शिबिरार्थियो को मिला)

..आरती हो रही…आनंद मंगल करू आरती…

प्रार्थना हो रही है….

(सदगुरूदेव के पावन दर्शन के लिए पूनम व्रतधारी लाइन में लगे है….


सेवाधारियो से कुछ गलती हुयी तो सदगुरूदेव ने समझाया कि सेवा करते तो

नम्र भाव से करनी चाहिऐ….दादागिरी से नही…..इसी का नाम सेवा है….)

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय…..प्रीति देवाय…माधुर्य देवाय….

गुरुदेवाय..शांति देवाय…ओम नमो भगवते वासुदेवाय…

(परम पूज्य सदगुरूदेव हास्य करवाए…)


अगली पूनम २ जगह होगी….

आनंद आता है?

अच्छा लगता है?

ॐ शांति…

हरी ओम!

पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग परवचन ....

वाह बापू वाह....

मज्जा आ गया ....

जय हो!!!!!

सदगुरूदेव की जय हो!!!!!

(गलतियों के लिए प्रभुजी क्षमा करे…)

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

रविवार सप्तमी ४ जुलाई २०१० को


इन तिथियों पर जप/ध्यान करने का वैसा ही हजारों गुना फल होता है

जैसा की सूर्य/चन्द्र ग्रहण में जप/ध्यान करने से होता है:

१. सोमवती अमावस्या - (15thMarch'10, 9thAug'10 )

२. रविवार को सप्तमी हो जाए. (21stFeb'10, 7thMar'10, 4thJul'10, 12 th dec
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३. मंगलवार की चतुर्थी हो जाए.(19thJan'10, 1st Jun'10, 2ndFeb'10)

४. बुधवार की अष्टमी हो जाए. (15thSept'10)




इन तिथियों पर जप/ध्यान का फल ग्रहण के समय किये ही जप/ध्यान के सामान होता है.

इसलिए हमें इन तिथियों पर जादा जप करना चाहिए, जिस से हमें थोडे में ही जादा लाभ मिले

बापूजी......

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

सत्संग के लाभ

सत्संग इतना प्रभावी साधन है कि इसमे श्रोता को कुछ भी नही करना पडता है लेकिन महालाभ पाता है…

.जैसे गाय दिन भर जंगल मे यहा वहा गुजर गुजर के घांस पत्ते खाकर शाम को जब बछडे को अपना दूध पिलाती है

तो बछडे को क्या करना होता है..बस खड़ा होना और सुकुर सुकुर…..

तैयार माल मिलता है गोमाता से…ऐसे ही बछडे स्वरुप होते है

श्रोता जब संत महात्माओ के आगे बैठकर सत्संग सुनते है..

संत महात्मा बहोत साधना करके जंगलों मे गुफाओ मे घूमकर..

सब मंदिर शास्त्र ढूंढ़ कर ..कितने कितने परिश्रम करके कड़ी साधना कर के ईश्वर को पाते है,

आत्मज्ञान पाते है..और यह ज्ञान रूपी दूध सत्संग मे श्रोता (बछडे) के आगे रखते है

तो सत्संगियो को तो तैयार माल मिलता है…संत महात्माओ ने कितने कितने योग से पाया हुआ ज्ञान

श्रोता के कान मे जाता है तो सत्संग सुनने वाले का बहोत हीत करता है….

और सत्संग सुनने के लिए ४ कदम चलकर आते है तो एक एक कदम एक एक यज्ञ करने का फल देता है…

सत्संग मे चलकर आते है , सुनते है , तो कर्म योग हो जाता है..

सत्संग से सुना हुआ समझते है तो ज्ञान योग हो जाता है और सत्संग मे ताली बजा लेते हो तो भक्ती योग हो जाता है….

सेवा करने वाले सेवा खोज लेते है..पंडाल मे कितने सेवाधारी कितनी प्रकार के सेवा दे रहे है..




यहा तो कुम्भ बन गया है , लेकिन सेवक नही थकते..

सब सुविधा कर दी..किसी ने देखा ना देखा सेवक अपने काम करते क्यो कि सेवा कराने से जो आनंद मिलता

वोह काम विकार से मिल सकता है क्या?

तो इस प्रकार पहला :- श्रद्धा से भगवान के नाम का जाप ,

दुसरा :- संत महात्मा का सत्संग का लाभ लेना और

तीसरा :- सेवा…!! ….

प्रार्थना..सेवा ..पुण्य….कल्याण….!ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ …

.ज्ञान का प्रकाश होता है.. आकर्षणो से बचाव कर लेते है

बापूजी के सत्संग परवचन से....

जय हो.....

जपते रहे तेरा नाम....जय बापू आशाराम

बुधवार, 30 जून 2010

तीन सवाल..........(सबसे श्रेष्ठ कौन है) .... सत्संग



एक राजा जिस साधु-संत से मिलता, उनसे तीन प्रश्न पूछता।

पहला- कौन व्यक्ति श्रेष्ठ है?

दूसरा- कौन सा समय श्रेष्ठ है?

और
तीसरा- कौन सा कार्य श्रेष्ठ है?

सब लोग उन प्रश्नों के अलग-अलग उत्तर देते,

किंतु राजा कोउनके जवाब से संतुष्टि नहीं होती थी।

एक दिन वह शिकार करने जंगल में गया।

इस दौरान वह थक गया, उसे भूख-प्यास सताने लगी।

भटकते हुए वह एक आश्रम में पहुंचा।

उस समय आश्रम में रहने वाले संत आश्रम के फूल-पौधों को पानी दे रहे थे।

राजा को देख उन्होंने अपना काम फौरन रोक दिया।

वह राजा को आदर के साथ

अंदर ले आए। फिर उन्होंने राजा को खाने के लिए मीठे फल दिए।

तभी एक व्यक्ति अपने साथ एक घायल युवक को लेकर आश्रम में आया।

उसके घावों से खून बह रहा था।

संत तुरंत उसकी सेवा में जुट गए।

संत की सेवा से युवक को बहुत आराम मिला।

राजा ने जाने से पहले उस संत से भी वही प्रश्न पूछे।

संत ने कहा,

'आप के तीनों प्रश्नों का उत्तर तो मैंने अपने व्यवहार से अभी-अभी दे दिया है।'

राजा कुछ समझ नहीं पाया। उसने निवेदन किया,

'महाराज, मैं कुछ समझा नहीं।

स्पष्ट रूप से बताने की कृपा करें।'

संत ने राजा को समझाते हुए कहा,

'राजन्, जिस समय आप आश्रम में आए मैं पौधों को पानी दे रहा था।

वह मेरा धर्म है।

लेकिन आश्रम में अतिथि के रूप में आने पर आपका आदर सत्कार करना

मेरा प्रधान कर्त्तव्य था।

आप अतिथि के रूप में मेरे लिए श्रेष्ठ व्यक्ति थे।

पर इसी बीच आश्रम में घायल व्यक्ति आ गया।

उस समय उस संकटग्रस्त व्यक्ति की पीड़ा का निवारण करना भी मेरा कर्त्तव्य था,

मैंने उसकी सेवा की और उसे राहत पहुंचाई।

संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना श्रेष्ठ कार्य है।

इसी तरह हमारे पास आने वालों के आदर सत्कार करने का,

उनकी सेवा-सहायता करने का समय ही श्रेष्ठ है।'

राजा संतुष्ट हो गया।

मंगलवार, 29 जून 2010

सफलता के राज़ (बाल-संस्कार केन्द्र स्पेशल )






1.कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती ।


करमूले तु गोविंद: प्रभाते करदर्शनम् ॥



हर रोज प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठना, ईश्वर का ध्यान और 'कर दर्शन' करके बिस्तर छोड़ना तथा सूर्योदय से पूर्व स्नान करना ।




२.अपनी सुषुप्त शक्तियाँ जगाने एवं एकाग्रता के विकास के लिए नियमित रूप से गुरुमंत्र का जप ,



ईश्वर का ध्यान और त्राटक करना ।







3.बुद्धि शक्ति के विकास एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हर रोज प्रातः सूर्य को अर्घ्य देना ,



सूर्य नमस्कार एवं आसन करना ।



४.स्मरण शक्ति के विकास के लिए नियमित रूप से भ्रामरी प्राणायाम करना एवं तुलसी के ५-७ पत्ते



खाकर एक गिलास पानी पीना ।



५.माता -पिता एवं गुरुजनों को प्रणाम


करना । इससे जीवन में आयु, विद्या, यश, व बल की वृद्धि होती है ।




६.महान बनने का दृढ़ संकल्प करना तथा उसे हर रोज दोहराना,


ख़राब संगति एवं व्यसनों का दृढ़तापूर्वक त्याग कर अच्छे मित्रों की संगति करना तथा चुस्तता से ब्रह्मचर्य का पालन करना ।


७.समय का सदुपयोग करना, एकाग्रता से विद्या-अध्ययन करना और मिले हुए ग्रहकार्य को


हर रोज नियमित रूप से पूरा करना ।


८.हर रोज सोने से पूर्व पूरे दिन की परिचर्या का सिंहावलोकन करना और

गलतियों को फिर न दोहराने का संकल्प करना,



तत्पश्चात ईश्वर का ध्यान करते हुए सोना ....



बापूजी के सत्संग से .....


वाह बापू वाह .....

कितना समजाते हो....


हम नादान पता नही कब समजेंगे

आप हमारा तो भला करते हो पर हमारी आने वाली पीडी का भी कितना ख्याल रखते हो

जेसे एक बाप अपने बच्चो का ख्याल रखता है

धन्य हुए हम जो आपको पाया ...

जय हो ...

जपते रहे तेरा नाम जय बापू आशाराम ...

कोई माने या न माने हम भक्त तेरे दीवाने....



हरिओम्म्म्म्म्

कमल हिरानी, दुबई

kem.hirani@yahoo.co.in