शनिवार, 1 मई 2010

जिंदगी का सच......

अरे ! तू मरने के लिए जन्मा था कि मुक्त होने के लिए जन्मा था ?

तुम पैदा हुए थे मुक्त होने के लिए। तुम पैदा हुए थे अमर आत्मेदव को पाने के लिए।

"पढ़ते क्यों हो ?"

"पास होने के लिए।"

"पास क्यों होना है ?!"

"प्रमाणपत्र पाने के लिए।"

"प्रमाणपत्र क्यों चाहिए ?"

"नौकरी के लिए।"

"नौकरी क्यों चाहिए ?"

"पैसे कमाने के लिए।"

"पैसे क्यों चाहते हो ?"

"खाने के लिए।"

"खाने क्यों चाहते हो ?"

"जीने के लिए।"

"जीना क्यों चाहते हो ?"

"................"

कोई जवाब नही। कोई ज्यादा चतुर होगा तो बोलेगाः "मरने के लिए।"

अगर मरना ही है तो केवल एक छोटी सी सुई भी काफी है।

मरने के लिए इतनी सारी मजदूरी करने की आवश्यकता नहीं है।

वास्तव में हर जीव की मेहनत है स्वतन्त्रता के लिए, शाश्वतता के लिए, मुक्ति के लिए।

मुक्ति तब मिलती है जब जीव रागरहित होता है।

राग ही आदमी को बेईमान बना देता है, राग ही धोखेबाज बना देता है,


राग ही चिन्तित बना देता है, राग ही कर्मों के बन्धन में ले आता है।

रागरहित होते ही तुम्हारी हाजिरी मात्र से जो होना चाहिए वह होने लगेगा,

जो नहीं होना चाहिए वह रूक जाएगा। रागरहित पुरूष के निकट हम बैठते हैं

तो हमारे लोभ, मोह, काम, अहंकार शान्त होने लगते हैं,

प्रेम, आनन्द, उत्साह, ईश्वर-प्राप्ति के भाव जगने लग जाते हैं।

उनकी हाजरी मात्र से हमारे हृदय में जो होना चाहिए वह होने लगता है, जो नहीं होना चाहिए वह नहीं होता।

राग रहित होना माने परम खजाना पाना। रागरहित होना माने ईश्वर होना।

रागरहित होना माने ब्रह्म होना।

आजकल तो सब दरिद्र मिलते है। धन तो है लेकिन दिल में शान्ति नहीं है।

सत्ता तो है लेकिन भीतर रस नहीं है। धन होते हुए हृदय में शान्ति नहीं है....


. वे कंजूस, धन के गुलाम, धन में राग वाले, सत्ता में राग वाले,

परिवार में रागवाले सफल दरिद्र हैं।

इन चीजों को बटोरकर सुखी हो जाना चाहते हैं वे मूर्ख हैं।

कबीरा इह जग आयके बहुत से कीने मीत।

जिन दिल बाँधा एक से वो सोये निश्चिन्त।।

रागरहित हुए तो एक परमात्मा का साक्षात्कार हो गया,

वे निश्चिन्त हो गये। फिर उनकी मृत्यु उनकी मृत्यु नहीं है,


उनका जीना उनका जीना नहीं है। उनका हँसना उनका हँसना नहीं है।


उनका रोना उनका रोना नहीं है। वे तो रोने से, हँसने से, जीने से, मरने से बहुत परे बैठे हैं।


न तद् भासते सूर्यो न शशांको न पावकः।

यद् गत्वा न निर्वतन्ते तद् धाम परमं मम।।

'जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते,

उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परम धाम है।'

(भगवद् गीताः 15.6)

रागरहित पुरूष उस परम धाम को प्राप्त हो जाते हैं।


बस, इतना ही काम है जो चुटकी बजाते पूरा हो जाय।

ऐसा नही कि कुछ करेंगे तब परम धाम में जाने के लिए विमान आयगा।

अरे, विमानवाले धाम में तो खतरा है। पुण्य क्षीण होते ही मृत्युलोक में वापस।

क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।

परम धाम में तो आवागमन और वायदे की तो बात ही नहीं।


मूंआ पछीनो वायदो नकामो को जाणे छे काल।

आज अत्यारे अब घड़ी साधो जोई लो नगदी रोकड़ माल।।

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