रविवार, 31 अक्तूबर 2010

रमा एकादशी is 2 nd nov. 2010

रमा एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! मुझ पर आपका स्नेह है,
अत: कृपा करके बताइये कि कार्तिक के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ?

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! कार्तिक (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार आश्विन) के कृष्णपक्ष में
‘रमा’नाम की विख्यात और परम कल्याणमयी एकादशी होती है ।

यह परम उत्तम है और बड़े-बड़े पापों को हरनेवाली है ।
पूर्वकाल में मुचुकुन्द नाम से विख्यात एक राजा हो चुके हैं,
जो भगवान श्रीविष्णु के भक्त और सत्यप्रतिज्ञ थे ।

अपने राज्य पर निष्कण्टक शासन करनेवाले उन राजा के यहाँ नदियों में श्रेष्ठ
‘चन्द्रभागा’ कन्या के रुप में उत्पन्न हुई ।
राजा ने चन्द्रसेनकुमार शोभन के साथ उसका विवाह कर दिया ।

एक बार शोभन दशमी के दिन अपने ससुर के घर आये और उसी दिन समूचे नगर में पूर्ववत् ढिंढ़ोरा पिटवाया गया कि: ‘एकादशी के दिन कोई भी भोजन न करे ।’

इसे सुनकर शोभन ने अपनी प्यारी पत्नी चन्द्रभागा से कहा :
प्रिये ! अब मुझे इस समय क्या करना चाहिए,इसकी शिक्षा दो ।’


चन्द्रभागा बोली :प्रभो!मेरे पिता के घर पर एकादशी के दिन मनुष्य तो क्या कोई पालतू पशु आदि भी भोजन नहीं कर सकते । प्राणनाथ ! यदि आप भोजन करेंगे तो आपकी बड़ी निन्दा होगी । इस प्रकार मन में विचार करके अपने चित्त को दृढ़ कीजिये ।


शोभन ने कहा :प्रिये ! तुम्हारा कहना सत्य है ।
मैं भी उपवास करुँगा । दैव का जैसा विधान है, वैसा ही होगा ।


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके शोभन ने व्रत के नियम का पालन किया किन्तु सूर्योदय होते होते उनका प्राणान्त हो गया ।

राजा मुचुकुन्द ने शोभन का राजोचित दाह संस्कार कराया ।
चन्द्रभागा भी पति का पारलौकिक कर्म करके पिता के ही घर पर रहने लगी ।

नृपश्रेष्ठ ! उधर शोभन इस व्रत के प्रभाव से मन्दराचल के शिखर पर बसे हुए परम रमणीय देवपुर को

प्राप्त हुए । वहाँ शोभन द्वितीय कुबेर की भाँति शोभा पाने लगे ।

एक बार राजा मुचुकुन्द के नगरवासी विख्यात ब्राह्मण सोमशर्मा तीर्थयात्रा के प्रसंग से घूमते हुए
मन्दराचल पर्वत पर गये, जहाँ उन्हें शोभन दिखायी दिये ।

राजा के दामाद को पहचानकर वे उनके समीप गये ।
शोभन भी उस समय द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा को आया हुआ देखकर शीघ्र ही आसन से उठ खड़े हुए
और उन्हें प्रणाम किया ।

फिर क्रमश : अपने ससुर राजा मुचुकुन्द, प्रिय पत्नी चन्द्रभागा तथा समस्त नगर का कुशलक्षेम पूछा ।



सोमशर्मा ने कहा : राजन् ! वहाँ सब कुशल हैं । आश्चर्य है ! ऐसा सुन्दर और विचित्र नगर तो कहीं किसीने भी नहीं देखा होगा । बताओ तो सही, आपको इस नगर की प्राप्ति कैसे हुई?



शोभन बोले : द्विजेन्द्र ! कार्तिक के कृष्णपक्ष में जो ‘रमा’ नाम की एकादशी होती है,
उसीका व्रत करने से मुझे ऐसे नगर की प्राप्ति हुई है । ब्रह्मन् !

मैंने श्रद्धाहीन होकर इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया था, इसलिए मैं ऐसा मानता हूँ कि यह नगर स्थायी नहीं है । आप मुचुकुन्द की सुन्दरी कन्या चन्द्रभागा से यह सारा वृत्तान्त कहियेगा ।



शोभन की बात सुनकर ब्राह्मण मुचुकुन्दपुर में गये और वहाँ चन्द्रभागा के सामने उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया ।



सोमशर्मा बोले : शुभे ! मैंने तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा । इन्द्रपुरी के समान उनके दुर्द्धर्ष नगर का भी अवलोकन किया, किन्तु वह नगर अस्थिर है । तुम उसको स्थिर बनाओ ।



चन्द्रभागा ने कहा : ब्रह्मर्षे ! मेरे मन में पति के दर्शन की लालसा लगी हुई है । आप मुझे वहाँ ले चलिये । मैं अपने व्रत के पुण्य से उस नगर को स्थिर बनाऊँगी ।



भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! चन्द्रभागा की बात सुनकर सोमशर्मा उसे साथ ले मन्दराचल पर्वत के निकट वामदेव मुनि के आश्रम पर गये ।

वहाँ ॠषि के मंत्र की शक्ति तथा एकादशी सेवन के प्रभाव से चन्द्रभागा का शरीर दिव्य हो गया तथा उसने दिव्य गति प्राप्त कर ली । इसके बाद वह पति के समीप गयी ।

अपनी प्रिय पत्नी को आया हुआ देखकर शोभन को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने उसे बुलाकर अपने वाम भाग में सिंहासन पर बैठाया । तदनन्तर चन्द्रभागा ने अपने प्रियतम से यह प्रिय वचन कहा:

‘नाथ ! मैं हित की बात कहती हूँ, सुनिये ।
जब मैं आठ वर्ष से अधिक उम्र की हो गयी,

तबसे लेकर आज तक मेरे द्वारा किये हुए एकादशी व्रत से जो पुण्य संचित हुआ है, उसके प्रभाव से यह नगर कल्प के अन्त तक स्थिर रहेगा तथा सब प्रकार के मनोवांछित वैभव से समृद्धिशाली रहेगा ।’



नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार ‘रमा’ व्रत के प्रभाव से चन्द्रभागा दिव्य भोग, दिव्य रुप और दिव्य आभरणों से विभूषित हो अपने पति के साथ मन्दराचल के शिखर पर विहार करती है ।

राजन् ! मैंने तुम्हारे समक्ष ‘रमा’ नामक एकादशी का वर्णन किया है ।

यह चिन्तामणि तथा कामधेनु के समान सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली है ।

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

I LOVE U BAPU

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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

माया.......

असली पारस

(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

संत नामदेव की पत्नी का नाम राजाई था और परीसा भागवत की पत्नी का नाम था कमला।

कमला और राजाई शादी के पहले सहेलियाँ थीं। दोनों की शादी हुई तो पड़ोस-पड़ोस में ही आ गयीं।

राजाई नामदेव जी जैसे महापुरुष की पत्नी थी और कमला परीसा भागवत जैसे देवी के उपासक की पत्नी

थी। कमला के पति ने देवी की उपासना करके देवी से पारस माँग लिया

और वे बड़े धन-धान्य से सम्पन्न होकर रहने लगे। नामदेवजी दर्जी का काम करते थे।

वे कीर्तन-भजन करने जाते और पाँच-पन्द्रह दिन के बाद लौटते।

अपना दर्जी का काम करके आटे-दाल के पैसे इकट्ठे करते और फिर चले जाते।

वे अत्यन्त दरिद्रता में जीते थे लेकिन अंदर से बड़े सन्तुष्ट और खुश रहते थे।

एक दिन नामदेव जी कहीं कीर्तन-भजन के लिए गये तो कमला ने राजाई से कहा कि

'तुम्हारी गरीबी देखकर मुझे तरस आता है। मेरा पति बाहर गया,

तुम यह पारस ले लो, थोड़ा सोना बना लो और अपने घर को धन धान्य से सम्पन्न कर लो।'

राजाई ने पारस लिया और थोड़ा सा सोना बना लिया। संतुष्ट व्यक्ति की माँग भी आवश्यकता की

पूर्ति भर होती है। ऐसा नहीं कि दस टन सोना बना ले, एक दो पाव बनाया बस।

नामदेव जी ने आकर देखा तो घर में सीधा-सामान, धन-धान्य....

भरा-भरा घर दीखा। शक्कर, गुड़, घी आदि जो भी घर की आवश्यकता थी वह सारा सामान आ गया था।



नामदेव जी ने कहाः "इतना सारा वैभव कहाँ से आया ?"

राजाई ने सारी बात बता दी कि "परीसा भागवत ने देवी की उपासना की और देवी ने पारस दिया।

वे लोग खूब सोना बनाते हैं और इसीलिए दान भी करते हैं, मजे से रहते हैं।

हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। मेरा दुःख देखकर उसको दया आ गयी।"

नामदेव जी ने कहाः "मुझे तुझ पर दया आती है कि सारे पारसों को पारस ईश्वर है,

उसको छोड़कर तू एक पत्थर लेकर पगली हो रही है। चल मेरे साथ, उठा ये सामान !"

नामदेव जी बाहर गरीबों में सब सामान बाँटकर आ गये। घर जैसे पहले था ऐसे ही खाली-खट कर दिया।

नामदेव जी ने पूछाः "वह पत्थर कहाँ है ? लाओ !

" राजाई पारस ले आयी। नामदेव जी ने उसे ले जाकर नदी में फेंक दिया और कहने लगे

'मेरे विट्ठल, पांडुरंग ! हमें अपनी माया से बचा। इस धन दौलत, सुख सुविधा से बचा,

नहीं हम तेरा, अंतरात्मा का सुख भूल जायेंगे।' – ऐसा कहते कहते वे ध्यान मग्न हो गये।

स्त्रियों के पेट में ऐसी बड़ी बात ज्यादा देर नहीं ठहरती।

राजाई ने अपनी सहेली से कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया।

अब सहेली कमला तो रोने लगी। इतने में परीसा भागवत आया,

पूछाः "कमला ! क्या हुआ, क्या हुआ ?"

वह बोलीः "तुम मुझे मार डालोगे ऐसी बात है।"

आखिर परीसा भागवत ने सारा रहस्य समझा तो वह क्रोध से लाल-पीला हो गया।

बोलाः "कहाँ है नामदेव, कहाँ है ? कहाँ गया मेरा पारस, कहाँ गया ?

" और इधर नामदेव तो नदी के किनारे ध्यानमग्न थे।

परीसा भागवत वहाँ पहुँचाः "ओ ! ओ भगत जी ! मेरा पारस दीजिये।"

नामदेवः "पारस तो मैंने डाल दिया उधर (नदी में)।

परम पारस तो है अपना आत्मा। यह पारस पत्थर क्या करता है ?

मोह, माया, भूत-पिशाच की योनि में भटकाता है।

पारस-पारस क्या करते हो भाई !

बैठो और पांडुरंग का दर्शन करो।"

"मुझे कोई दर्शन-वर्शन नहीं करना।"

"हरि ॐ बोलो, आत्मविश्रान्ति पाओ।"

"नहीं चाहिए आत्मविश्रान्ति, आप ही पाओ।

मेरे जीवन में दरिद्रता है, ऐसा है वैसा है... मुझे मेरा पारस दीजिये।"

"पारस तो नदी में डाल दिया।"

"नदी में डाल दिया ! नहीं, मुझे मेरा वह पारस दीजिये।"

"अब क्या करना है..... सच्चा पारस तो तुम्हारा आत्मा ही है। अरे, सत्य आत्मा है...."

"मैं आपको हाथ जोड़ता हूँ मेरे बाप ! मुझे मेरा पारस दो.... पारस दो.....।"

"पारस मेरे पास नही है, वह तो मैंने नदी में डाल दिया।"

"कितने वर्ष साधना की, मंत्र-अनुष्ठान किये,

सिद्धि आयी, अंत में सिद्धिस्वरूपा देवी ने मुझे वह पारस दिया है।


देवी का दिया हुआ वह मेरा पारस...."

नामदेव जी तो संत थे, उनको तो वह मार नहीं सकता था। अपने-आपको ही कूटने लगा।

नामदेव जी बोलेः "अरे क्या पत्थर के टुकड़े के लिए आत्मा का अपमान करता है !"

'जय पांडुरंगा !' कहकर नामदेव जी ने नदीं में डुबकी लगायी

और कई पत्थर ला के रख दिये उसके सामने।

"आपका पारस आप ही देख लो।"

देखा तो सभी पारस !

"इतने पारस कैसे !"

"अरे, कैसे-कैसे क्या करते हो, जैसे भी आये हों ! आप ले लो अपना पारस !"

"ये कैसे पारस, इतने सारे !"

नामदेवजी बोलेः "अरे, आप अपना पारस पहचान लो।"

अब सब पारस एक जैसे, जैसे रूपये-रूपये के सिक्के सब एक जैसे।

आपने मुझे एक सिक्का दिया, मैंने फेंक दिया और मैं वैसे सौ सिक्के ला के रख दूँ

और बोलूँ कि आप अपना सिक्का खोज लो तो क्या आप खोज पाओगे ?

उसने एक पारस उठाकर लोहे से छुआया तो वह सोना बन गया।

लोहे की जिस वस्तु को लगाये वह सोना !

"ओ मेरी पांडुरंग माऊली (माँ) ! क्या आपकी लीला है !

हम समझ रहे थे कि नामदेव दरिद्र हैं। बाप रे !

हम ही दरिद्र हैं। नामदेव तो कितने वैभवशाली हैं। नहीं चाहिए पारस,

नहीं चाहिए, फेंक दो। ओ पांडुरंग !"

परीसा भागवत ने सारे-के-सारे पारस नदी में फेंक दिये

और परमात्म-पारस में ध्यानमग्न हो गये।

ईश्वर जिस ध्यान में हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिस ध्यान में हैं,

तुम वहाँ पहुँच सकते हो। अपनी महिमा में लग जाओ। आपका समय कितना कीमती है

और आप कौन से कूड़-कपट र क्रिया-कलापों में उलझ रहे हो !

अभी आप बन्धन में हो, मौत कभी भी आकर आपको ले जा सकती है

और किसी के गर्भ में ढकेल सकती है।

गर्भ न मिले तो नाली में बहने को आप मजबूर होंगे।

चाहे आपके पास कितने भी प्रमाणपत्र हों, कुछ भी हो,

आपके आत्मवैभव के आगे यह दुनिया कोई कीमत नहीं रखती।

जब मिला आतम हीरा, जग हो गया सवा कसीरा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 213

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

‘पापांकुशा’ एकादशी १८/१०/२०१० को


पापांकुशा एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : हे मधुसूदन !

अब आप कृपा करके यह बताइये कि आश्विन के शुक्लपक्ष में

किस नाम की एकादशी होती है और उसका माहात्म्य क्या है ?


भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आश्विन के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है,

वह ‘पापांकुशा’ के नाम से विख्यात है । वह सब पापों को हरनेवाली,

स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, शरीर को निरोग बनानेवाली तथा सुन्दर स्त्री,

धन तथा मित्र देने वाली है ।

यदि अन्य कार्य के प्रसंग से भी मनुष्य इस एकमात्र एकादशी को उपास कर ले तो उसे कभी यम यातना नहीं प्राप्त होती ।


राजन् ! एकादशी के दिन उपवास और रात्रि में जागरण करनेवाले मनुष्य अनायास ही दिव्यरुपधारी,

चतुर्भुज, गरुड़ की ध्वजा से युक्त, हार से सुशोभित और पीताम्बरधारी होकर भगवान विष्णु के धाम को जाते हैं ।

राजेन्द्र ! ऐसे पुरुष मातृपक्ष की दस, पितृपक्ष की दस तथा पत्नी के पक्ष की भी दस पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं ।

उस दिन सम्पूर्ण मनोरथ की प्राप्ति के लिए मुझ वासुदेव का पूजन करना चाहिए ।

जितेन्द्रिय मुनि चिरकाल तक कठोर तपस्या करके जिस फल को प्राप्त करता है,

वह फल उस दिन भगवान गरुड़ध्वज को प्रणाम करने से ही मिल जाता है ।



जो पुरुष सुवर्ण, तिल, भूमि, गौ, अन्न, जल, जूते और छाते का दान करता है,

वह कभी यमराज को नहीं देखता । नृपश्रेष्ठ ! दरिद्र पुरुष को भी चाहिए कि वह स्नान,

जप ध्यान आदि करने के बाद यथाशक्ति होम, यज्ञ तथा दान वगैरह करके अपने प्रत्येक दिन को सफल बनाये ।


जो होम, स्नान, जप, ध्यान और यज्ञ आदि पुण्यकर्म करनेवाले हैं,

उन्हें भयंकर यम यातना नहीं देखनी पड़ती ।

लोक में जो मानव दीर्घायु, धनाढय, कुलीन और निरोग देखे जाते हैं,

वे पहले के पुण्यात्मा हैं । पुण्यकर्त्ता पुरुष ऐसे ही देखे जाते हैं ।

इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ, मनुष्य पाप से दुर्गति में पड़ते हैं और धर्म से स्वर्ग में जाते हैं ।


राजन् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था,

उसके अनुसार ‘पापांकुशा एकादशी’ का माहात्म्य मैंने वर्णन किया । अब और क्या सुनना चाहते हो?

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

आज हमारी असली शादी का दिवस है।


देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया।

ना छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।

भगवान के दर्शन से भी ऊँचा

(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

आत्मसाक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। जीव, जगत (स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत) और ईश्वर – ये सब माया के अन्तर्गत आते हैं। आत्मसाक्षात्कार माया से परे है। जिसकी सत्ता से जीव, जगत, ईश्वर दिखते हैं, उस सत्ता को मैं रूप से ज्यों का त्यों अनुभव करना, इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार। जन्मदिवस से भी हजारों गुना ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। आत्मासाक्षात्कार दिवस। भगवान कहते हैं-

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।

हजारों मनुष्यों में कोई विरला सिद्धि के लिए यत्न करता है और उन सिद्धों में से कोई विरला मुझे तत्वतः जानता है।

आत्मसाक्षात्कार को ऐसे कोई विरले महात्मा ही पाते हैं। योगसिद्धि, दिव्य दर्शन, योगियों का आकाशगमन, खेचरी, भूचरी सिद्धियाँ, भूमि में अदृश्य हो जाना, अग्नि में प्रवेश करके अग्निमय होना, लोक-लोकान्तर में जाना, छोटा होना, बड़ा होना इन अष्टसिद्धियों और नवनिधियों के धनी हनुमानजी आत्मज्ञानी श्रीरामजी के चरणों में गये, ऐसी आत्मसाक्षात्कार की सर्वोपरि महिमा है। साधना चाह कोई कितनी भी ऊँची कर ले, भगवान राम, श्रीकृष्ण, शिव के साथ बातचीत कर ले, शिवलोक में शिवजी के गण या विष्णुलोक में जय-विजय की नाईं रहने को भी मिल जाय फिर भी साक्षात्कार के बिन यात्रा अधूरी रहती है।

आज हमारी असली शादी का दिवस है। आज ईश्वर मिलन दिवस, मेरे गुरूदेव का विजय दिवस है, मेरे गुरूदेव का दान दिवस है, गुरूदेव के पूरे बरसने का दिवस है।

दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो पूरी मानवता के लिए अपने परम तत्त्व को पा सकने की खबर देने वाला दिवस आत्मसाक्षात्कार दिवस है। आज वह पावन दिवस है जब जीवात्मा सदियों की अधूरी यात्रा पूरी करने में सफल हो गया।
धरती पर तो रोज करीब डेढ़ करोड़ो लोगों का जन्म दिवस होता है।

शादी दिवस और प्रमोशन दिवस भी लाखों लोगों का हो सकता है।
ईश्वर के दर्शन का दिवस भी दर्जनों भक्तों का हो सकता है लेकिन ईश्वर-साक्षात्कार दिवस तो कभी-कभी और कहीं-कहीं किसी-किसी विरले को देखने को मिलता है। जो लोक संत हैं और प्रसिद्ध हैं
उनके साक्षात्कार दिवस का तो पता चलता है,

बाकी तो कई ऐसे आत्मारामी संत हैं जिसका हमको आपको पता ही नहीं।
ऐसे दिवस पर कुछ न करें तब भी वातावरण में आध्यात्मिकता की अद्भुत तरंगें फैलती रहती हैं।

आसोज सुद दो दिवस, संवत बीस इक्कीस।

मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस।।

देह मिथ्या हुई पढ़ते तो हो, बोलते तो हो लेकिन देह कौनसी, पता है जो दिखती है वह स्थूल देह है,

इसके अंदर सूक्ष्म देह है। विष्णुभक्त होगा तो विष्णुलोक में जायगा, तत्त्वज्ञान नहीं है तो अभी देह मिथ्या नहीं हुई।
अगर पापी है तो नरकों में जायेगा फिर पशुयोनि में आयेगा,

पुण्यात्मा है तो स्वर्ग में जायेगा फिर अच्छे घर में आयेगा, लेकिन अब न आना न जाना,

अपने आपमें व्यापक हो जाना है। जब तत्त्व ज्ञान हो गया तो देह और आकृति का अस्तित्व अंदर टिकाने वाला शरीर मिथ्या हो गया। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर सारे बाधित हो गये।

जली हुई रस्सी देखने में तो आती है लेकिन उससे आप किसी को बाँध नहीं सकते।
ऐसे ही जन्म जन्मांतरों की यात्रा का कारण जो अज्ञान था, वह गुरु की कृपादृष्टि से पूरा हो गया (मिट गया)। जैसे धान से चावल ले लिया भूसी की ऐसी-तैसी, केले से गूदा ले लिया फिर केले के छिलके को तुम कैसे निरर्थक समझते हो, ऐसे ही शरीर होते हुए भी-

देह सभी मिथ्या हुई, जगत हुआ निस्सार।

हुआ आत्मा से तभी, अपना साक्षात्कार।।

आज तो आप लोग भी मुझे साक्षात्कार-दिवस की खूब मुबारकबादी देना, इससे आपका हौसला बुलंद होगा। जैसे खाते पीते, सुख-दुःख, निंदा स्तुति के माहौल से गुजरते हुए पूज्यपाद भगवत्पाद श्री श्री लीलाशाहजी बापू, रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि अथवा तो और कई नामी-अनामी संत समत्वयोग की ऊँचाई तक पहुँच गये, साक्षात्कार कर लिया, ऐसे ही आप भी उस परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं, ऐसे ही साक्षात्कारी पुरूषों के इस पर्व को समझने सुनने से आत्मचाँद की यात्रा करने का मोक्षद्वार खुल जाता है।

मनुष्य तू इतना छोटा नहीं कि रोटी, कपड़े मकान, दुकान या रूपयों में ही सारी जिंदगी पूरी कर दे। इन छूट जाने वाली असत् चीजों में ही जीवन पूरा करके अपने साथ अन्याय मत कर। तू तो उस सत्स्वरूप परमात्मा के साक्षात्कार का लक्ष्य बना। वह कोई कठिन नहीं है, बस उससे प्रीति हो जाये।

असत् पदार्थों की और दृष्टि रहेगी तो विषमता बढ़ेगी। यह शरीर मिथ्या है, पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा। धन, पद ये मिथ्या हैं, इनकी तरफ नजर रहेगी तो आपका व्यवहार समतावाला होगा। धीरे धीरे समता में स्थिति आने से आप कर्मयोगी होने में सफल हो जाओगे। ज्ञान के द्वारा सत् असत् का विवेक करके सत् का अनुसंधान करोगे और असत् की आसक्ति मिटाकर समता में खड़े रहोगे तो आपका ज्ञानयोग हो जायगा। बिना साक्षात्कार के समता कभी आ ही नहीं सकती चाहे भक्ति में प्रखर हो, योग में प्रखर हो, ज्ञान का बस भंडार हो लेकिन अगर साक्षात्कार नहीं हुआ तो वह सिद्धपुरूष नहीं साधक है। साक्षात्कार हुआ तो बस सिद्ध हो गया।

इस महान से महान दिवस पर साधकों के लिए एक उत्तम तोहफा यह है कि आप अपने दोनों हाथों की उँगलियों को आमने सामने करके मिला दें। होंठ बंद करके जीभ ऐसे रखें कि न ऊपर लगे न नीचे, बीच में रखें। फिर जीव-ब्रह्म की एकता का संकल्प करके, तत्त्वरूप से जो मौत के बाद भी हमारा साथ नहीं छोड़ता उसमें शांत हो जायें। यह अभ्यास प्रतिदिन करें, कुछ समय श्वासोच्छवास की गिनती करें जिससे मन एकाग्र होने लगेगा, शक्ति का संचय होने लगेगा। धीरे-धीरे इस अभ्यास को बढ़ाते जायेंगे तो तत्त्व में स्थिति हो जायेगी। जीवन की शाम होने के पहले साक्षात्कारी महापुरूषों की कृपा की कुंजी से साक्षात्कार कर लेना चाहिए।