मंगलवार, 26 जुलाई 2011

मैं विवाह नहीं करूँगा,.........



तैलंग स्वामी बड़े उच्चकोटि के संत थे।

 वे 280 साल तक धरती पर रहे। रामकृष्ण परमहंस के उनके काशी में दर्शन किये तो बोलेः ''साक्षात् विश्वनाथजी इनके शरीर में निवास करते हैं।"

 उन्होंने तैलंग स्वामी को 'काशी के सचल विश्वनाथ' नाम से प्रचारित किया।

तैलंग स्वामी जी का जन्म दक्षिण भारत के विजना जिले के होलिया ग्राम में हुआ था। 

बचपन में उनका नाम शिवराम था।
 शिवराम का मन अन्य बच्चों की तरह खेलकूद में नहीं लगता था।

 जब अन्य बच्चे खेल रहे होते तो वे मंदिर के प्रांगण में अकेले चुपचाप बैठकर एकटक आकाश की ओर या शिवलिंग को निहारते रहते।

 कभी किसी वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे ही समाधिस्थ हो जाते।

 लड़के का रंग-ढंद देखकर माता-पिता को चिंता हुई कि कहीं यह साधु बन गया तो !

 उन्होंने उनका विवाह कराने का मन बना लिया।

 शिवराम को जब इस बात का पता चला तो वे माँ से बोलेः "माँ ! मैं विवाह नहीं करूँगा,

 मैं तो साधु बनूँगा। अपने आत्मा की, परमेश्वर की सत्ता का ज्ञान पाऊँगा,

 सामर्थ्य पाऊँगा।" माता-पिता के अति आग्रह करने पर वे बोलेः 

"अगर आप लोग मुझे तंग करोगे तो फिर कभी मेरा मुँह नहीं देख सकोगे।"


माँ ने कहाः "बेटा ! मैंने बहुत परिश्रम करके, कितने-कितने संतों की सेवा करके तुझे पाया है। मेरे लाल !

 जब तक मैं जिंदा रहूँ तब तक तो मेरे साथ रहो, मैं मर जाऊँ फिर तुम साधु हो जाना।

 पर इस बात का पता जरूर लगाना कि संत के दर्शन और उनकी सेवा का क्या फल होता है।


"माँ ! मैं वचन देता हूँ।"

कुछ समय बाद माँ तो चली गयी भगवान के धाम और वे बन गये साधु।

 काशी में जाकर बड़े-बड़े विद्वानों, संतों से सम्पर्क किया।

 कई ब्राह्मणों, साधु-संतों से प्रश्न पूछा लेकिन किसी ने ठोस उत्तर नहीं दिया
 कि संत-सान्निध्य और संत-सेवा का यह-यह फल होता है।

 यह तो जरूर बताया कि
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।


परंतु यह पता नहीं चला कि पूरा फल क्या होता है। इन्होंने सोचा, 'अब क्या करें ?'

किसी साधु ने कहाः "बंगाल में बर्दवान जिले की कटवा नगरी में गंगाजी के तट पर उद्दारणपुर नाम का एक महाश्मशान है, 

वहीं रघुनाथ भट्टाचार्य स्मृति ग्रंथ लिख रहे हैं।

 उनकी स्मृति बहुत तेज है। वे तुम्हारे प्रश्न का जवाब दे सकते हैं।"

अब कहाँ तो काशी और कहाँ बंगाल, फिर भी उधर गये।

 रघुनाथ भट्टाचार्य ने कहाः "भाई ! संत के दर्शन और उनकी सेवा का क्या फल होता है,

 यह मैं नहीं बता सकता। हाँ, उसे जानने का उपाय बताता हूँ।

 तुम नर्मदा किनारे चले जाओ और सात दिन तक मार्कण्डेय चण्डी का सम्पुट करो।

 सम्पुट खत्म होने से पहले तुम्हारे समक्ष एक महापुरुष और भैरवी उपस्थित होंगे।

 वे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे सकते है "

शिवरामजी ने वहाँ से नर्मदा-किनारे पहुँचे और अनुष्ठान में लग गये।

 देखो, भूख होती है तो आदमी परिश्रम करता है

 और परिश्रम के बाद जो मिलता है न, वह पचता है।

 अब आप लोगों को ब्रह्मज्ञान की तो भूख है नहीं,

 ईश्वरप्राप्ति के पुरुषार्थ करना नहीं है तो कितना सत्संग मिलता है,

 उससे पुण्य तो हो रहा है, फायदा तो हो रहा है लेकिन साक्षात्कार की ऊँचाई नहीं आती। 

हमको भूख थी तो मिल गया गुरुजी का प्रसाद।

अनुष्ठान का पाँचवाँ दिन हुआ तो भैरवी के साथ एक महापुरुष प्रकट हुए।

 बोलेः "क्या चाहते हो ?" शिवरामजी प्रणाम करके बोलेः "प्रभु ! मैं यह जानना चाहता हूँ कि संत के दर्शन, सान्निध्य और सेवा का क्या फल होता है ?"

महापुरुष बोलेः "भाई ! यह तो मैं नहीं बता सकता हूँ।"

देखो, यह हिन्दू धर्म की कितनी सच्चाई है !

 हिन्दू धर्म में निष्ठा रखने वाला कोई भी गप्प नहीं मारता कि ऐसा है, ऐसा है।

 काशी में अनेक विद्वान थे, कोई गप्प मार देता ! लेकिन नहीं, सनातन धर्म में सत्य की महिमा है।

 आता है तो बोलो, नहीं आता तो नहीं बोलो।

 शिवस्वरूप महापुरुष बोलेः "भैरवी ! तुम्हारे झोले में जो तीन गोलियाँ पड़ी हैं वे इनको दे दो।"
फिर वे शिवरामजी को बोलेः "इस नगर के राजा के यहाँ संतान नहीं है।

 वह इलाज कर-करके थक गया है।

 ये तीन गोलियाँ उस राजा की रानी को खिलाने से उसको एक बेटा होगा,

 भले उसके प्रारब्ध में नहीं है। वही नवजात शिशु तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देगा।"

शिवरामजी वे तीन गोलियाँ लेकर चले। 

नर्मदा किनारे जंगल में आँधी –तूफानों के बीच पेड़ के नीचे सात दिन के उपवास,

 अनुष्ठान  शिवरामजी का शरीर कमजोर पड़ गया था।

 रास्ते में किसी बनिया की दुकान से कुछ भोजन किया

 और एक पेड़ के नीचे आराम करने लगे। इतने में एक घसियारा आया।

 उसने घास का बंडल एक ओर रखा।

 शिवरामजी को प्रणाम किया,

 बोलाः "आज की रात्रि यहीं विश्राम करके मैं कल सुबह बाजार में जाऊँगा।"

शिवरामजी बोलेः "हाँ, ठीक है बेटा ! अभी तू जरा पैर दबा दे।"

वह पैर दबाने लगा। शिवरामजी को नींद आ गयी और वे सो गये।

 घसियारा आधी रात तक उनके पैर दबाता रहा और फिर सो गया।

 सुबह हुई, शिवरामजी ने उसे पुकारा तो देखा कि वह तो मर गया है।

 अब उससे सेवा ली है तो उसका अंतिम संस्कार तो करना पड़ेगा।

 दुकान से लकड़ी आदि लाकर नर्मदा के पावन तट पर उसका क्रियाकर्म कर दिया 

और नगर में जा पहुँचे।


राजा को संदेशा भेजा कि 'मेरे पास दैवी औषधी है,

 जिसे खिलाने से रानी को पुत्र होगा।

राजा ने इन्कार कर दिया कि "मैं रानी को पहले ही बहुत सारी औषधियाँ खिलाकर देख चुका हूँ परंतु कोई सफलता नहीं मिली।"

शिवरामजी ने मंत्री से कहाः "राजा को बोलो जब तक संतान नहीं होगी,

 तब तक मैं तुम्हारे राजमहल के पास रहूँगा।" तब राजा ने शिवरामजी की औषधि ले ली।


शिवरामजी ने कहाः "मेरी एक शर्त है कि पुत्र जन्म लेते ही तुरंत नहला-धुलाकर मेरे सामने लाया जाये। 

मुझे उससे बातचीत करनी है, इसीलिए तो मैं इतनी मेहनत करके आया हूँ।"


यह बात मंत्री ने राजा को बतायी तो राजा आश्चर्य से बोलाः 

"नवजात बालक बातचीत करेगा ! चलो देखते हैं।"

रानी को गोलियाँ खिला दीं। दस महीने बाद बालक का जन्म हुआ।

 जन्म के बाद बालक को स्नान आदि कराया तो वह बच्चा आसन लगाकर ज्ञान मुद्रा में बैठ गया। राजा की खुशी का ठिकाना न रहा।

 रानी गदगद हो उठी कि "यह कैसा बबलू है कि पैदा होते ही ॐऽऽऽ करने लगा !

 ऐसा तो कभी देखा-सुना नहीं।"

सभी लोग चकित हो गये। शिवरामजी के पास खबरें पहुँची।

 वे आये, उन्हें भी महसूस हुआ कि 'हाँ, अनुष्ठान का चमत्कार तो है !

' वे बालक को देखकर प्रसन्न हुए, बोले, 

"बालक ! मैं तुमसे एक सवाल पूछने आया हूँ

 कि संत-सान्निध्य और संत सेवा का क्या फल होता है 

?"
नवजात शिशु बोलाः "महाराज ! मैं तो एक गरीब, लाचार, मोहताज घसियारा था।

 आपकी थोड़ी सी सेवा की और उसका फल देखिये,

 मैंने अभी राजपुत्र होकर जन्म लिया है और पिछले जन्म की बातें सुना रहा हूँ।

 इसके आगे और क्या-क्या फल होगा, इतना तो मैं नहीं जानता हूँ।।"


ब्रह्म का ज्ञान पाने वाले, ब्रह्म की निष्ठा में रहने वाले महापुरुष बहुत ऊँचे होते हैं

 परंतु उनसे भी कोई विलक्षण होते हैं कि जो ब्रह्मरस पाया है वह फिर छलकाते भी रहते हैं।

 ऐसे महापुरुषों के दर्शन, सान्निध्य व सेवा की महिमा तो वह घसियारे से राजपुत्र बना नवजात बबलू बोलने लग गया,

 फिर भी उनकी महिमा का पूरा वर्णन नहीं कर पाया तो मैं कैसे कर सकता हूँ !


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
hariommmmmmmmmmmmmm
waah bapu ji..............waaah.....aanand hai ....
kya samjate ho .....mazza aa gya....jai ho..............
hariom.........
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