"व्यापार उधारी में चले जाने से मैं हताश हो गया था एवं अपनी जिंदगी से तंग आकर आत्महत्या करने की बात सोचने लगा था | मुझे साधु-महात्माओं व समाज के लोगों से घृणा-सी हो गयी थी | धर्म व समाज से मेरा विश्वास उठ चुका था |
एक दिन मेरी साली बापूजी के सत्संग की दो कैसेटें 'विधि का विधान' एवं 'आखिर कब तक ?' ले आयी और उसने मुझे सुनने के लिए कहा |
उसके कई प्रयास के बाद भी मैंने वे कैसेटें नहीं सुनीं एवं मन-ही-मन उन्हें 'ढ़ोंग' कहकर कैसेटों के डिब्बे में डाल दिया | मन इतना परेशान था कि रात को नींद आना बंद हो गयी थी | एक रात फ़िल्मी गाना सुनने का मन हुआ |
अँधेरा होने की वजह से कैसेटे पहचान न सका और गलती से बापूजी के सत्संग की कैसेट हाथ में आ गयी | मैंने उसीको सुनना शुरू किया |
फिर क्या था ? मेरी आशा बँधने लगी | मन शाँत होने लगा | धीरे-धीरे सारी पीड़ाएँ दूर होती चली गयीं | मेरे जीवन में रोशनी-ही-रोशनी हो गयी |
फिर तो मैंने पूज्य बापूजी के सत्संग की कई कैसेटें सुनीं और सबको सुनायीं | तदनंतर मैंने गाजियाबाद में बापूजी से दीक्षा भी ग्रहण की | व्यापार की उधारी भी चुकता हो गयी |
बापूजी की कृपा से अब मुझे कोई दुःख नहीं है | हे गुरूदेव ! बस, एक आप ही मेरे होकर रहें और मैं आपका ही होकर रहूँ |"
-ओमप्रकाश बजाज,
दिल्ली रोड़, सहारनपुर, उत्तर प्रदेश
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