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"परम पूज्य सदगुरूदेव की कृपा से मुझे दिनांक १८ से २४ मई १९९९ तक अमदावाद आश्रम के मौनमंदिर में साधना करने का सुअवसर मिला | मौनमंदिर में साधना के पाँचवें दिन यानी २२ मई की रात्रि को लगभग २ बजे नींद में ही मुझे एक झटका लगा |
लेटे रहने कि स्थिति में ही मुझे महसूस हुआ कि कोई अदृश्य शक्ति मुझे ऊपर... बहुत ऊपर उड़ाये ले जा रही है | ऊपर उड़ते हुए जब मैंने नीचे झाँककर देखा तो अपने शरीर को उसी मौनमंदिर में चित्त लेटा हुआ, बेखबर सोता हुआ पाया | ऊपर जहाँ मुझे ले जाया गया वहाँ अलग ही छटा थी... अजीब और अवर्णीय !
आकाश को भी भेदकर मुझे ऐसे स्थान पर पहुँचाया गया था जहाँ चारों तरफ कोहरा-ही-कोहरा था, जैसे, शीशे की छत पर ओस फैली हो ! इतने में देखता हूँ कि एक सभा लगी है, बिना शरीर की, केवल आकृतियों की | जैसे रेखाओं से मनुष्यरूपी आकृतियाँ बनी हों | यह सब क्या चल रहा था... समझ से परे था | कुछ पल के बाद वे आकृतियाँ स्पष्ट होने लगी |
देवी-देवताओं के पुंज के मध्य शीर्ष में एक उच्च आसन पर साक्षात बापूजी शंकर भगवान बने हुए कैलास पर्वत पर विराजमान थे और देवी-देवता कतार में हाथ बाँधे खड़े थे | मैं मूक-सा होकर अपलक नेत्रों से उन्हें देखता ही रहा, फिर मंत्रमुग्ध हो उनके चरणों में गिर पड़ा |
प्रातः के ४ बजे थे | अहा ! मन और शरीर हल्का-फ़ुल्का लग रहा था ! यही स्थिति २४ मई की मध्यरात्रि में भी दोहरायी गयी | दूसरे दिन सुबह पता चला कि आज तो बाहर निकलने का दिन है यानी रविवार २५ मई की सुबह |
बाहर निकलने पर भावभरा हृदय, गदगद कंठ और आखों में आँसू ! यों लग रहा था कि जैसे निजधाम से बेघर किया जा रहा हूँ |
धन्य है वह भूमि, मौनमंदिर में साधना की वह व्यवस्था, जहां से परम आनंद के सागर में डूबने की कुंजी मिलती है !
जी करता है, भगवान ऐसा अवसर फिर से लायें जिससे कि उसी मौनमंदिर में पुनः आंतरिक आनंद का रसपान कर पाऊँ |"
-इन्द्रनारायण शाह,
१०३, रतनदीप-२, निराला नगर, कानपुर
हरि ॐ,
नारायण नारायण नारायण नारायण
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