




सत्-ता, चेतन-ता, और आनंद-ता, जीवात्मा और परमात्मा को मिलाता है;
और असत-ता, जड़-ता, और दुःख-रुप-ता शरीर और संसार को मिलाती है;
तो शरीर संसार का हिस्सा है और जीवात्मा परमात्मा का अंग है…..
अंग अंग ही से जुदा रहना चाहता है,
मिटटी का धेला पृथ्वी का अंग है,
ज़ोर से फेंको, फिर भी पृथ्वी पर आएगा..
अग्नी सुर्य का अंग है,
दियासलाई जलाओ, सीदी करो तो भी उसकी लौ ऊपर,
और उलटी कर दो,तो भी उसकी लौ ऊपर…
ऐसे ही जीवात्मा सत्, चित और आनंद का अंग है,
इसलिये वोह सदा रहना चाहता है, सब कुछ जानना चाहता है,
और आनंद चाहता है;लेकिन असत, जड़ और दुःख रुप से आनंद चाहता है,
इसलिये मार खाता है और फिर सब छोड़ के मर जाता है…
अगर, सत्संग मिल जाये,थोडा साधन मिल जाये, गुरू-मंत्र मिल जाये,
थोडा ध्यान की रित मिल जाये, तो (गुरुदेव चुटकी बजाते है )
असत का सदुपयोग और सत् का साक्षात्कार. ..दोनो हाथ में लड्डू…!!:)
बापूजी के सत्संग परवचन से...
क्या इसमें कुछ गलत सोचते है मेरे बापू....????????
सबका मंगल सबका भला ...
ऐसी भावना रखते है मेरे बापू..
वाह बापू वाह .....
हम अपने आप को भाग्यशाली समजते है ...
जो हमे आप मिले...
बापू आपकी जय हो....
जपते रहे तेरा नाम ...जय बापू आशाराम ....
हरिओम...
कमल हिरानी...दुबई (यु ऐ ई)
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