बुधवार, 16 जून 2010
पल का पता नहीं(सत्संग)
आत्मतत्त्व नहीं जानने के कारण ही हमको सुख-दुःख की चोट लगती है।
अज्ञानी सोचता है कि जिस प्रकार मैं चाहता हूँ उसी प्रकार सब हो जाय तो मुझे सुख हो। यही मनुष्य का अज्ञान हो।
जगत के बन्धनकारक सम्बन्धों को सत्ता देने वाला दृष्टा इन सम्बन्धों गुम हो गया है।
उस परम का पता नहीं और शरीर को ही मैं मानकर सब सम्बन्धों की भ्रमजाल रचते जाते हैं।
इन्हीं बन्धनों में जन्म-जन्मांतर बीत गये। आज तक उसका बोझा उठा रहे है।
पता पल का नहीं, सामान सौ साल का थामे जा रहे है।
जो अस्तित्व है उस अस्तित्व का ज्ञान नहीं है इससे हमारा भय जगहें बदल लेता है
लेकिन निर्मूल नहीं होता। संसारी लोग सिखा सिखा कर क्या सिखायेंगे ?
वे अज्ञानी संसार का बन्धन ही पक्का करायेंगे। जिस फ्रेम में दादा जकड़े गये,
पिता जकड़े गये, उसी फ्रेम में पुत्र को भी फिट करेंगे। बन्धन से छुड़ा तो नहीं सकेंगे।
इस प्रकार सोचना कि ईश्वर हमारे कहने में चले – यह मूर्खता है।
यह तुम्हारे मन की गाँठ है। उसको खोलना चाहिए।
खोलोगे नहीं तो स्वभाव नहीं बदलेगा और स्वभाव नहीं बदलेगा तो फिर दुःख ही हाथ लगेगा।
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