रविवार, 11 जुलाई 2010
दुनिया में दो विभाग हैं
हरि सम जग कछु वस्तु नहीं, प्रेम पंथ सम पंथ,
सदगुरू सम सज्जन नहीं, गीता सम नहीं ग्रंथ…
हरि सम जग कछु वस्तू नहीं –
हरि हैं नित्य, जगत है अनित्य,जगत है जड़ और हरि हैं ज्ञान स्वरूप, हरि हैं चेतन,
जगत है जड़ , हरि हैं सुख रुप और जगत है बदलने वाला…
दुनिया में दो विभाग हैं -
एक वोह, जो हमारा है, जैसे मकान, दुकान, घर…
और दूसरा वोह है, जो हमारा नहीं है…सारे मकान तो मेरे नही हैं,
सारी दुकान तो मेरी नहीं हैं…
तो एक वोह होता है जिसे आप बोलते हैं मेरा घर,
मेरी पत्नी, मेरा बेटा , मेरा पैसा….
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और दूसरा वोह जो हमारा नहीं है…
और जिसको मेरा बोलते हैं तो वोह बहुत थोडा है…और जो मेरा नही है ,
उसका तो कोई अंत नहीं है…तो जिसको मेरा मेरा मानते हैं,
वोह सदा साथ में रहेगा, मरने के बाद में साथ चलेगा?
दूसरा मिले कि नहीं मिले, लेकिन जो है, वोह छोड़ना पड़ेगा कि नही ?
दिल पे हाथ रख कर देखो…जो मेरा नहीं है, वोह तो नही है ,
लेकिन जिसको मेरा मानते हैं, वोह भी छोड़ के जाना पड़ेगा…तोक्या करें?
उसका सदुपयोग करें, उस से ममता कम करें, और जिसका सब कुछ है,
वोह वास्तविक में मेरा था, मेरा है, और मेरा रहेगा…कौन मेरा था?बोले आत्मा मेरा था,
अगले जनम में भी…और मेरा है, बचपन मे भी था, अभी भी है,
और मरने के बाद भी रहेगा…शरीर मरेगा फिर भी मेरा आत्मा तो रहेगा ना?
तो जो मेरा था,
मेरा है और मेरा रहेगा, उस से तो प्रीति करो…जो सदा है उस का नाम है हरि,
रोम रोम में राम रमता है, तो उसको आप”राम” कह दो…दुःख और थकान हर लेता है,
तो उसको “हरि” कह्तेहैं…दिन भर आपा-धापी में रात को मन इन्द्रियां में,
मन बुद्धि में, और बुद्धि उस चैतन्य में…थकान, दुःख, चिन्ता हर लेता है…
उस परमेश्वर का नाम हो गया “हरि”…और वोह आत्मा है, इसलिये हरि ओम्म्म्म्म्म्म्म्म्म. …
तो अब क्या करना है…हरि ॐ का तो गुंजन करना है और वोह ही मेरा हैं…
और यह थोड़े दिन के लिए मेरा मेरा है, छूटने वाला है…और वोह सदा के लिए मेरा है…
यह बात समझने में आपको देर लगी क्या? यह बात झूठी लगती है क्या?
सच्ची है, पक्की है?तो जो अपना नहीं है, वोह तो नहीं है…जिसको अपना मानते हैं,
वो भी सदा नहीं रहता…
मेरे खिलोने, खिलोने रहे क्या? मेरी शर्ट,मेरी नन्ही सी बुश-शर्ट,
अभी खोजों तो मिलेगी नहीं…कोई दे भी देतो इतने बडे बाबा को इतनी सी बुश-शर्ट कैसे आएगी?
लेकिन उस समय जो मेरा हरि साथ में था, वोह अभी भी है…उसी को बोलतेहैं -
आड़ सत् , जुगात सत् , है भी सत्, होसे भी सत्…
तो जो सत् है, उस को तो अपना मानो, प्रीति करो…और जो बदलने वाला है उसका उपयोग कर लो…माता की,
पिता की, कुटुंब की, समाज की,भगवान् की सेवा कर लो,
बस हो गया…दोनो हाथ में लड्डू…और उल्टा क्या करते हैं,
जो अपना नहीं था , अपना नहीं रहेगा, उसकोतो बोलते हैं हमारा है,
और खपे खपे खपे…और जो अपना था,है, रहेगा,
उसका पता नहीं…इसीलिये अशांति बढ़ गयी सारे वर्ल्ड मे ….सारी दुनिया में…
हरिओम्म्म्म्म्म्म्
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