शनिवार, 17 अप्रैल 2010

"शहंशाह.... शहंशाह.... शहंशाह...."


लीलाराम नाम का एक व्यक्ति कहीं मुनीमी करता था

(हमारे सदगुरूदेव की यह बात नहीं है।) वह कहीं फँस गया।

पैसे के लेन देन में कुछ हेराफेरी के बारे में उस पर केस चला।

ब्रिटिश शासन में सजाएँ भी कड़क होती थीं।

जान-पहचान, लाँच-रिश्वत कम चलती थी। लीलाराम घबराया और विलायतराम के चरणों में आया।

विनती की। विलायतराम ने कहाः"तुमने जो किया है वह भोगना पड़ेगा, मैं क्या करूँ ?"

"महाराज ! मैं आपकी शरण हूँ। मुझे कैसे भी करके आप बचाओ।

दुबारा गलती नहीं होगी। गलती हो गई है उसके लिए आप जो सजा करें, मैं भोग लूँगा।

न्यायाधीश सजा करेगा, जेल में भेज देगा,

इसकी अपेक्षा आपके श्रीचरणों में रहकर अपने पाप धोऊँगा।"संत का हृदय पिघल गया।

बोलेः"अच्छा ! अब तू अपना केस रख दे उस शहंशाह परमात्मा पर।

जिस ईश्वर के विधान का तूने उल्लंघन किया है उसी ईश्वर की शरण हो जा,

उसी ईश्वर का चिन्तन कर। उसकी कृपा करूणा मिलेगी तो बेड़ा पार हो जाएगा।

"लीलाराम ने गुरू की बात मान ली। बस, जब देखो तब शहंशाह.....

शहंशाह.... चलते-फिरते शाहंशाह..... शाहंशाह.....! शाहंशाह माने लक्ष्य यही जो सर्वोपरि सत्ता है।

मन उसका तदाकार हो गया।मुकद्दमे के दिन पहुँचा कोर्ट में।

जज ने पूछाः"इतने-इतने पैसे की तुमने हेराफेरी की, यह सच्ची बात है ?"

"शाहंशाह....""

तेरा नाम क्या है?""शहंशाह..."

"यह क्यों किया ?""शहंशाह...

"सरकारी वकील उलट छानबीन करता है, प्रश्न पूछता है तो एक ही जवाबः "शहंशाह..."

"अरे ठीक बोल नहीं तो पिटाई होगी।""शंहशाह..."

"यह कोर्ट है।""शहंशाह...""तेरी खाल खिंचवाएँगे।""शहंशाह....

"लीलाराम का यह ढोंग नहीं था। गुरू के वचन में डट गया था। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्...।

गुरू के वचन में लग गया। "शहंशाह.... शहंशाह.... शहंशाह...."

उसके ऊपर डाँट-फटकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, प्रलोभन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

उसका शहंशाह का चिन्तन ऊपर-ऊपर से थोपा हुआ नहीं था

अपितु गुरूवचन गहरा चला गया था उसके अंतर में। वह एकदम तदाकार हो गया था।

जब तुम अपने देह की चिन्ता छोड़कर, सुख-दुःख के परिणामों की चिन्ता छोड़कर परम तत्त्व में

लग जाते हो तो प्रकृति तुम्हारे अनुकूल हो जाती है।

यह भी ईश्वरीय विधान है।


आप ज्यों-ज्यों देह से, मन से अधिक गहराई में जाते हैं

त्यों-त्यों आपकी सुरक्षा ईश्वरीय विधान के अनुसार होती है।

बापूजी के सत्संग परवचन से..............

Hariom

3 टिप्‍पणियां:

  1. "जब तुम अपने देह की चिन्ता छोड़कर, सुख-दुःख के परिणामों की चिन्ता छोड़कर परम तत्त्व में लग जाते हो तो प्रकृति तुम्हारे अनुकूल हो जाती है।"
    सच्ची और सही सोच - आभार

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  2. इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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